Book Title: Kavivar Budhjan Vyaktitva Evam Krutitva
Author(s): Mulchand Shastri
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur

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Page 210
________________ छह ढाला १८७ रहता है और जब मरण-काल समीप प्राता जानता है तब सब प्रकार से ममत्व भाव को दूर करता है और सावधान चित हो समाधिमरण धारण करता है ।।५१|| पद्य-ऐसे पुरुषोत्तम केरा, "बुधजन' चरनन का चेरा । __वे निश्चय सुरपद पायें, धोरे दिन में शिव जावें ॥ ५-११-५२ प्रर्थ-कविवर "बुधजन" कहते हैं कि जो इस प्रकार के पुरुषार्थ को प्रगट करता है प्रदि गृहस्थोचितवतों का निरतिचार पालन करता है और अंत समय में संल्लेखना धारण करता है। उस सम्यग्रष्टि व्रती श्रावक के परसों का दास हूँ। ऐसा जीवनिनिय ही कल्पवासी देव होता है तथा वहां से चलकर मनुष्य भब धारण करके, मुनिपद धारण करके ( ३भव में ही) मोक्ष को प्राप्त कर लेता है ॥५२।। सूचना-कवि ने १२ व्रतों के उल्लेख में "प्रोषधोपवास" नामक शिक्षाप्रत का उल्लेख न करते हुए "सस्लेखना" की परिगणना करके १२ सतों की संख्या गिनाई है । ऐसा उमास्वामी प्रादि माचाों एवं पं. दौलतरामजी प्रादि विद्वानों ने सल्लेखना को १२ प्रतों के अतिरिक्त लिया है और यह ठीक भी है क्योंकि सल्लेखना केवल मरणकाल में ही धारण की जाती है, जबकि १२ प्रतों का पालन संपूर्ण व्रत-काल में किया जाता है। छठी-डाल (रोलाछन्द) पद्य-अधिर ध्याय पराय, भोगतें होय उदासी। निस्म-निरंजन-ज्योति, प्रातमा घट में भासी ।। अर्थ-जो यह निर्णय कर लेता है कि (प्रत्येक द्रव्य की) समस्त पर्याय अस्थिर हैं, वह भोगों के प्रति उदासीन भाव धारण कर लेता है तथा नित्य-निरंजनज्योति स्वरूप प्रात्मा मेरे ही घट में हैं उसे ऐसा विश्वास उत्पन्न हो जाता है ॥५३॥ पद्य-सुत-दारादि दुलाय, सबनितें मोह निवारा। त्यागि शहर-घन-धाम, वास घन-बीच विधारा ६-२-५४ अर्थ-जिसे संसार की अस्थिरता का प्राभास हो गया है वह अपने पुष, स्त्री भादि को बुलाकर (उनसे क्षमा का भादान-प्रदान करके) मोह-रहित हो जाता है तथा शहर, धन-सम्पत्ति, गृहयास भादि के मोह को छोड़, वन में रहने का दृढ़ संकल्प कर लेता है॥५४।। पद्य-भूपण-वसन-उतारि, नगन म्है प्रात्म चीन्हा । गुरु हिंग दीक्षा पारि, सीस कचलोंच जुकीना ।। अर्थ-(जिसे अपनी मास्मा की पहिचान हो गई है वह) समस्त प्रकार के वस्त्राभूषणों का परित्याग कर, गुरु के समीप जा, दीक्षा धारण कर लेता है (निर्ग्रन्थ हो जाता है) तथा (अपने हाथ से) केश लुचन क्रिया सम्पन्न करता है ।१५५।।

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