Book Title: Kavivar Budhjan Vyaktitva Evam Krutitva
Author(s): Mulchand Shastri
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur
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बुधजन सतसई
दीजे जेता ना मिले, जघन पुरुष की वान ।
जैसे फूटे घट धरयो मिले प्रलप पर यान || १०३ ||
भला किये करि है बुरा, दुर्जन सहज सुभाय ।
पमान ।
प पायें विष देत है, फणी महा सह निरादर दुरबचन, देह मार चौर चुगल परदाररत लोभी लबार प्रजान ॥ १०५ ॥ श्रमर हारि सेवा करें मानसकी कहा बरत ।
जो जन सील सन्तोषजुल, करं न परकी छात ॥ १०६ ॥ अर्गानि चोर भुपति दिपति, डरत रहे धनवान | निर्धन नींद निसंक ले माने काफी हान ॥ १०७॥ एक परत हूं मित पढे, तो कार्ट प्रज्ञान 1 पनिहारों को लंजर्स, सहज कर्ट पाषान १२१०८ पतिव्रता सतपुरुष की गाड़ा बीर सुभाव । भूख सहे वारिव सहै, करें न हीन उपाव ॥ १०६ ॥ और करौ वा हित करो, होत सबलतें हारि । मीत म गौरव घटे, शत्रु भयं दे मारि ॥११०॥ जाकी प्रकृति करूर प्रति, मुलकता होय लखे न । भजे सदा प्राचीन परि, सजे जुद्ध में सेन ।। १११६। सिथिल बॅग ढाढस बिना ताकी पैठ गर्ने न क्यों प्रसिद्ध रितु सरदकी, अम्बर नेकु भरं न ॥ ११२ ॥ जतन थ की नरकों मिले, बिना जतन ले धान । वासन भरि नर पीत है, पशु पीवें सब थान ।।११३ ।। झूठी मीठी तनकसी, अथिकी मानें कौन अवसरतें बोलों इसी
ज्यों घाटमै नौन ।। ११४।।
दुखदाय ॥ १०४ ॥
ज्वारी विभिचारीनिते, हरं निकसते मालनि ढोके टोकरा, छूटे सखिके श्रौसर लखिकं बोलिये, जथा सावन भादौं बरसतें, सब ही पार्व चैन ॥ ११६ ॥ बौलि उठे भौसर बिना, ताका रहे न मान
जोगता न ।
जैसे कार्तिक बरसते निंदै सकल जहान ।। ११७।।
संग्राम |
लाज काज स्वरचे दरब लाज काज लाज गयं सरबस गयो, लाज पुरुष की
मेल ।
खेल ॥। ११५ ।।
माम ॥११८॥
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