Book Title: Kavivar Budhjan Vyaktitva Evam Krutitva
Author(s): Mulchand Shastri
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur

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Page 218
________________ बुधजन सतसई मोह महाजोधा प्रबल, अंचा राखत मोय । यां को हरि सुधा करो, सीस नमाऊ तोय ॥७२।। मोह जोर को हरत है, तुम दरसत तुम बैन । जैसे सर सोषन करे, उदय होय के ऐन १७३।। भ्रमत भवार्णव में मिले, भाप प्रपूरब मीत । संसा नास्या दुख मया, सहजे भया नचीत ।।७४।। तुम माता तुम ही पिता, तुम सज्जन सुखदान । तुम समान व लोक में, भौर नाहिं भगवान ||७| जोग प्रजोग लसी मती, मो ध्याकुल के बन । करना करि के कोजियो, जैसे तैसे पैन ।७६|| मेरी परजी तनिक सी, बहत गिनोगे नाय । अपनी विरद विचारिक बहस गायिौ हाथ | मेरे प्रौगुन जिन गिनी, में प्रोमुन को घाम । पतित उधारक प्राप हो, करो पसित को काम |८|| सनी नहीं पोज मह, यिपति रही है घर । औरनिके कारज सरे, ढील कहा मी र ७६।। सार्थवाही दिन ज्यों पथिक, किमि पहुंचे परदेस । त्यों तुमसे करि हैं भविक, सिवपुरि में परवेस ॥२० केवल निर्मलज्ञानमें, प्रतिबिंबित जग प्रान । जनम मरन संकट हरन, भये प्राप रतध्यान ।।१।। प्रापतमतलबी ताहिते, कैसे मतलब होय। तुम बिनमतलब हो प्रभु, कर हो मतलछ मोय ।।२।। कुमति अनादि संग लगि, मोसो भोग रचाय । याको कोलो दुःख सहू, दीजे सुमति जगाय ॥५३॥ भववनमाहिं भरमियो, मोह नोंदमें सोय । कर्म ठिगोरे ठिगत है, क्यों न बगावो मोय ।।४।। दुःख दावानल में जलत, घने कालको जीव । निरखत हो समता मिली भली सूखांसी सीव ||५|| मो ममता दुखदा तिनै, मानत हूं हिसवान | मो मनमाहि उसटि या, सुलदादी, भगवान ।।६॥ लाभ सर्व साम्राज्य का, वेदयता तुम भक्त । हित प्रनहित समझ नहीं, तातै भये प्रसक्त ।।७।।

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