Book Title: Kavivar Budhjan Vyaktitva Evam Krutitva
Author(s): Mulchand Shastri
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur

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Page 213
________________ हानिकर दुध न . सत्य एवं कृतित्व अतः तू इनके चितवन में अपना अनमोल समय मत चिता क्योंकि हे मित्र । तूने कड़ी ही कठिनाई से यह मनुष्य-जम्म पाया है ॥६६॥ पद्य-सौ विरथा मन सोय, जोय प्रापा पर भाई। गई न लामै फेरि, उषि में टूबी राई ।। ६.१५-१७ अर्थ- हे भाई ! इस दुर्लभ नर-तन को विषयासक्त होकर व्यर्थ मत गंवा मोर स्व-पर भेद-विज्ञान को प्रगट कर | जिस प्रकार राई का दाना समुद्र में डूब जाय तो उसका प्राप्त करना भी अत्यन्त कठिन है ।।७।। पद्म--भसा नरक का बास, सहित समकित से पाता। बुरे बने जे देव, नृपति विध्यामत माता ॥ अर्थ- सम्यक्त्व सहित, नरकवास कहीं अधिक अन्छा है अपेक्षाकृत मिथ्यात्व सहित देव या राजा की पर्याय को धारण करने से ।।६८॥ बुधजन सतसई देवानुरागशतक सनमतिपद सनमप्तिकरन, बन्दो मंगलकार । बरन बुधजन सतसई, निजपर हिनकरतार ॥१॥ परमघरमकरतार है, भविजन सुखकरतार । नित वंदन करता रहूं, मेरा गहि करतार ।।२।। परू पगतरे आपके, पाप पगतरै दैन । हरी कर्मकों सवतर, करौ सय तरं चैन ।।३।। सबलायक, ज्ञायक प्रभू, शयक कर्मकरलेस । लायक जानिर नमत हैं, पायक भये सुरेस ॥४॥ नम् तोहि कर जोरिके, सिव बनरी कर जोरी । वरजोरी विधिको हरी, तीन लोक के तात ।।५।। तीन कालकी स्वबरि तुम, तीन लोक के तात । विविधसुद्ध वंदन करू, विविध ताप मिटि जात ॥६।। तीन लोक के पति प्रभु, परमातम परमेस । मन-बच-तन ते नमत हूँ, मेटो कठिन कलेस ॥७॥ पूजू तेरे पायकू, परम पदारथ जान । तुम पूजेते होत हैं सेवक आप समान ।1८|| तुम समान कोउ पान नहीं, तमू जाय कर नाय ।। सुरपति, नरपति, नागपति, प्राय परे तुम पांय III

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