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बुधजन सतसई
सुन अनंतगुन मुखयकी कैसे गाये जात । ईद मुनिद फनिवहू, गान करत थकि जात ||१०||
तुम अनंत महिमा अतुल, क्यों मुख करिह गान । सागर जल पीत न बने, पीजं तृषा समान ॥ १११ ॥
बिना कैसे रहूं, मौसर मिल्यो अबार । ऐसी विरियां टरि गया, कैसे बनल सुधार ||१२|| जो हैं कहांऊ भोरतें, तो न मिटे उरकार । मेरी तो तौसे बनों तातें करूं पुकार ।। १३३२
आनंदघन सुय निरखिकं हरषत है मन मोर । दूर भयो प्रताप सब सुनिकं मुख की घोर ॥१४॥
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पान यान अब नारु, मन राज्यों तुम नाथ ।
रतन चिंतामनि पायके, गहै कांच को हाथ ||१५||
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चंचल रहत सदैव चित्त थक्यो न काहू ठौर । अचल भयौ इकटक प्रवे, लग्यो रावरी मोर ॥१६॥
हजार ||१७||
मन मोह्यो मेरो प्रभु, सुन्दर रूप अपार इन्द्र सारिखे थकी रहे, करि करि नेन जैसे भानुप्रतापसे, तम नासे सब बोर । जैसे तुम निरखत नस्यो, संशय विभ्रम भोर ॥१८॥ अन्य नैन तुम दरस लखि, धनि मस्तक लखि पांय | श्रवन धन्य बानी सुने, रसना धनि गुन गाय ॥१६॥ अन्य दिवस धनिया धरि, धन्य भाग मुझ भाज । जनम सफल भय ही भयो, बंदत श्री महाराज ॥२०॥ लखि तुम छवि चितचोर को, चकित पक्ति चितचोर । मानन्द पूरन भरि गयो, नाहि चाहि रहि और ॥२१॥ चित चातक प्रत्र लखे, श्रानंदघन तुम और । वचनामृत पी लुप्त हैं, तृषा रही नहीं और ॥२२॥ जैसो धीरज श्रापमें सो न कहूं और ।
एक ठोर राजत अचल, व्याप रहे सब ठौर ||२३||
यो श्रद्भुत ज्ञातापनो, लख्यो श्रापकी जाग । भली बुरी निरखत रहो, करो नाहि कहूं राग ॥२४॥ घरि विसुद्धता भाव निज, दई प्रसाता खोय | क्षुधा तृषा तुम परिहरी, जैसें करिये मोय ।। २५॥
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