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तुलनात्मक अध्ययन
सन्त-जन प्राध्यात्मिकता के सूर्य हैं । जिनसे ज्ञान की किरणें समस्त जगत के ऊपर पड़ती हैं । जिन्होंने प्रश्नद्धा का श्रासपत्र नहीं धारण किया है। वे उनसे संजीवनी शक्ति खींच सकते हैं।
"सामान्य लोगों को चाहिये कि वे सत्संग किये आय । रस्सी की रगड़ से पत्थर भी घिस जाता है अतः बहु कालीन संगति का असर हमारे ऊपर अवश्य पाता है 1 सत्संग के सम्बन्ध में दो बातें ध्यान देने योग्य है (१) मन लगाकर किया जाय (२) बहुत काल तक किया जाय । यदि मन लगाकर बहुत काल तक सत्संग किया जाय तो उसका असर होना और हमें लाभ पहुंचना अवश्यंभावी है।"
रामचरित मानस में तुलसीदास जी ने इस बात की समीक्षा की है कि कवि लोग संत के हृदय को नवनीत क समान बताते हैं परन्तु सात हृदय के लिये नवनीस की उपमा योग्य नहीं है क्योंकि मश्वन तो स्वतः के ताप से पिघलता है अबकि संत का हृदय पर पीड़ा के कारण ही द्रवित हो जाता है।
"संतों और समभक्तों में जो लक्षण गोस्वामी जी ने बताये हैं उनसे राम भक्ति का स्वरूप प्रत्यात स्पष्ट हो जाता है । उनकी राम भक्ति कोई लोक बाह्य साधन नहीं है । यह परोपकार, लोककल्याए और सचराचर विश्व सेवा के रूप में प्रस्फुटित होती है । रामचरित मानस की भूमिका में जो सबसे बलशाली वंदना है वह राम नाम की है।
कबीरदास आदि निगुनिये संतों की भांति 'बुधजन' ने गुरु की महत्ता समान रूप से स्वीकार की है। उन्होंने गुरु के प्रसाद को पाने की प्राकांक्षा की है। कबीर दास ने गुरु को ईश्वर से बड़ा बताया जबकि बुधजन ने ईश्वर को ही सबसे बड़ा गुरु मामा है । बुधजन ने पंच परमेष्ट्री को परम गुरु माना है। मई त परमेष्ठी से प्रार्थना करते हुए कहते हैं :
___ "हे प्रमु ! श्रेष्ठ पदार्थ समझकर मैं आपके चरणों की पूजा करता हूं। भक्ति पूर्वक पूजा करने वाला सेवक भी अापके समान बन जाता है अर्थात् वह भो परमात्मा बन जाता है।"
"सत् संगति में रहने से जीघन सफल हो जाता है परन्तु जो खराब मार्ग से गुजरता है उसके जीवन में कलंक (दोष) अवश्य लगता है ।" यह कहकर "बुधजन"
१. डा० मरेन्द्र भामावत:, जिनवाणी पत्रिका, वर्षे ३३, प्रक ४-७ २. डॉ. माताप्रसाद गुप्तः तुलसी, पृ० सं० १२०.१२२, सन् १९५२, हिन्दी
परिषद प्रयाग विश्वविद्यालय । पूजू तेरे पायं फू, परम पदारथ जान । तुम पूजेते होत है सेयक प्राप समान ॥ बुधजनः बुधजन सतसई; पच सं० ८ पृ० सं० २, सनाधव ।। सससंगति में बैठता, जनमत सफल ह जाय। बुधजनः सतसई: पृ०६. पृ० सं० ४४५ ।
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