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तुलनात्मक अध्ययन
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श्रप्रमत्त भाव से अपने कर्त्तव्य का पालन करता है । कुटुम्ब और समाज के लिये की गई उसकी सेवा देश के लिये पूरक ही होती है क्योंकि ऐसा आदमी अपनी मर्यादा को जानता है और किस क्षेत्र में कितनी सेवा करनी चाहिये यह विवेक उसे होता है । उसका ध्येय सब की भलाई होने से किसी एक की भलाई के लिये वह दूसरों को कष्ट नहीं देता । एक की सेवा के लिये दूसरों की कुसेवा नहीं करता इत्यादि । कवि बुधजन के अनुसार संत में निम्न गुणों का होना आवश्यक है(१) अहिंसा ( २ ) सत्य (३) संयम ( ४ ) समन्वयदृष्टि ( ५ ) विवेक (६) पुरुषार्थ और अनासक्तभाव । कवि ने अपना साधना मय जीवन इसी विचारधारा को मूर्त रूप देने में लगाया । परमार्थं चितन और लोक कल्याण में जो अपना समूचा जीवन far वही सन्त है । वे सबका समान रूप से उदय चाहते थे । शास्त्रों की पुरानी लकीर पीटने में उनका विश्वास नहीं था वे शास्त्रों के आधार पर अपने जीवन में प्रयोग करते रहे । शास्त्रों में से उन्होंने ऐसे तत्वों को चुना जो व्यक्ति और समाज के लिये लाभदायक थे ।
साधारणतया ऐसा समझा जाता है कि जो घर छोड़ दें वह सन्त है, परन्तु संत को बनवासी या होना ही हिने नहीं है। रहस्थी में रहकर भी वह अनासक्त भाव से रह सकता है। अपनी बुद्धि से निपत कर्म में फल की आकांक्षा न रखते हुए लगे रहने वाला व्यक्ति ही संत है फिर चाहे वह गृहस्थ हो या वनवासी। गृहस्थ के मनासक्त भाव का वर्णन कविवर बनारसीदास ने इस प्रकार किया है ।
"कमल रातदिन पंक में ही रहता है और पंकज कहलाता है परन्तु वह पंक से सदा ही अलग रहता है। मंत्रवादी सर्प को अपना शरीर पकड़ाता है परन्तु मंत्र की शक्ति से विष के रहते हुए भी सर्प का डंक निर्विष रहता है । जीभ चिकनाई को ग्रहण करती है, परन्तु वह सदा ही रूखी रहती है। पानी में पड़ा हुमा सोना काई से अलग रहता है। इसी प्रकार ज्ञानी जन ( संतजन ) संसार में अनेक क्रियाओं को करते हुए भी अपने को सभी क्रियाओं से भिन्न मानता है । उन क्रियाओं में मन्न नहीं होता। इसलिये सदैव ही निष्कलंक रहता है
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जैसे निशिवासर कमल रहे पंक ही में, पंकज कहा वे पैन वा जैसे मंत्रवादी, विषधर सो महावेगात, मंत्र की मक्ति अंक है।
ढिंग पंक है । वाके बिना विष
जैसे जीभ गहे चिकनाई रहे कले अंग, पानी में कनक से कार्ड से मटक है । से ज्ञानवान नाना भांति करतूत ठाने, किरिया से भिन्न माने यातें मिष्कलंक है ।
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कश्विर बनारसीदास प्राचीन हिन्दी जन कवि, पृ० ६० भारत वर्षीय जैन साहित्य सम्मेलन, दमोह |