Book Title: Kavivar Budhjan Vyaktitva Evam Krutitva
Author(s): Mulchand Shastri
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur

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Page 187
________________ १६४ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व भाष यह है संत शब्द प्रपने मौलिक अर्थ में शुद्ध अस्तित्व मात्र का बोधक है। शास्त्रों में इसका अर्थ उस परम-तत्व के लिये प्रयुक्त हुमा है जिसका कभी भी नाश नहीं होता । जो सदा एक रस तथा अधिकारी है । उसी को सत्य के नाम से भी अभिहित किया गया है। वैदिक साहित्य में भी इस शब्द का प्रयोग हुया है। वहीं इस शब्द का प्रयोग ब्रह्म मानी परमारमा के अर्थ में हुअा है। कुछ महात्मानों ने संत एवं परमात्मा को एक ही अर्थ में प्रयुक्त किया है। उपरोक्त व्याख्या के माघार पर अन्य संतों की भांति में "कविवर बुधजन" को प्राध्यात्मिक परम्परा का संत मानता हूं पोंकि ये मुख्यतः अध्यात्म रस के रसिक थे । प्रारमा की घरमोन्नति के उद्घोषक ५ हिन्दी साहित्य में निपुण धारा एवं सगुण धारा के संतों ने जिस प्रकार ब्रह्म के निर्गुण-सगुण रूप की भक्ति की है उसी प्रकार "बुधजन" ने निगुणा (सिव) सगुण (प्रहन्त) इन दोनों रूपों की भक्ति की है । उनका भगवत् प्रेम सरसता का संचार करता है। इस विषय में डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री लिखते हैं : जन संतों का भगवत् प्रेम शुष्क सिद्धान्त नहीं "अपितु स्थायी प्रवृत्ति है । यह प्रात्मा की अशुभ प्रवृत्ति का निरोध कर शुभ प्रवृत्ति का उदय करता है, जिससे दया, क्षमा, शान्ति प्रावि श्रेयस्कर परिणाम उत्पन्न होते हैं। जन संतों का वयंविषय भक्ति और प्रार्थना के अतिरिक्त मन, शरीर, इन्द्रिय प्रादि की प्रवृत्तियों का अत्यन्त सूक्ष्मता और मार्मिकता के साथ बिबेचन करना एवं प्राध्यात्मिक भूमियों को स्पर्श करते हुए सहज समाधि को प्राप्त करना है।" व्यक्ति से समाज बनता है और समाज की भूमिका पर व्यक्ति का विकास होता है 1 हजारों वर्षों से संत और शानी तथा विचारक विचार करते पाये हैं कि समाज की व्यवस्था ठीक रहने, लोगों में योग्य गुणों का विकास होने और सुख पर्वक जीवन बिताने के लिये किन-किन नियमों या गुणों की प्रावश्यकता है। संत और ज्ञानी प्रायः सार्वकालिक और सार्वजनिक होता है । वह जो कुछ सोचता है सबके लिये सोचता है और हम उनके उपदेशों को सुनकर हित के मार्ग पर चलते हैं । मतः सन्त हमारे महान उपकारी हैं। कविवर "बुधजन" ने अपने साहित्य में प्रतिपादित किया-सुख प्राप्ति की पहली शर्त यह है कि प्रादमी अपने लिये कम से कम लेकर दूसरों को अधिक से अधिक सेवा दे। ऐसा भादमी जहां जाता है, प्रादर पाता है और सुख की वृद्धि होती है। उससे किसी को कष्ट नहीं होता । कूदम्ब में रहकर वह अपने से बड़ों की सेवा करता है । छोटों पर प्रेम और वात्सल्य रखता है। समाज में भी वह १. जो० नेमिचन्न पास्त्री : हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन, भाग १, पृ. २० १०६-१०७. भारतीय ज्ञान पीठ प्रकाशन प्रथम संस्करण १९५६ ।

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