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छह ढाला
पहली ढाल
मंगलाचरण (सोरठा छन्द) पद्य–सर्व द्रव्य में सार, प्रातम को हितकार है ।
नमहु ताहि चितघार; नित्य निरंजन जानके ।। अर्थ--(कालिक) शुद्धात्मा समस्त द्रव्यों में सार रूप और ग्रात्मा के लिये परम हितकारी है, ऐसा जानकर मैं उसे मनोयोग पूर्वक नमस्कार करता हूं ।।१।।
अनिश्य-भावना (चौपाई छन्द) पद्मप्रायु घरत तेरी दिनरात, होय निबीत रह यो क्यों भ्रात ।
जीवन धन-तम-किंकर-नारि, हैं सब जल बुदबुद उनहारि॥ १-१-२ अर्थ-हे भाई ! तेरी प्रायु प्रतिक्षण घट रही है। तेरा यह यौवन, धन, सुन्दर शरीर, सेवक, स्त्री प्रादि सभी पदार्थ पानी के बभूले की भांति क्षणिक हैं, ऐसी वशा में तेरा निश्चिन्त रहना (प्रमाद भाव), आश्चर्यजनक है ।।२।।
मशरण भावना पध-पूरन नायु वधं रिवन नाहि. दये कोटि धन तीरथ माहि ।
इन्द्र चक्रपति हू कहा करें, प्रायु अन्त ते वे हू मरे ॥ १-१-३
अर्थ-करोड़ों की सम्पदा तीर्थ स्थानों पर, खर्च करने पर भी प्रायु की पूर्णता होने पर तू एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकता इन्द्र, चक्रवर्ती प्रादि भी तेरी सहायता करने में सर्वथा असमर्थ हैं क्योंकि प्रायु के पूर्ण होने पर वे स्वयं भी मरण को प्राप्त करते हैं ।।३।।
संसार-भावना पद्य-यो संसार असार महान, सार प्राप में "पापा" जान । ___ सुख त दुःख, दुःख ते सुख होय, समता चारों गति नहिं होय ॥ १-१-४
प्रथ-यह संसार सर्वथा प्रसार ही है । इसमें किचित् भी सार नहीं है, निजात्मा ही उपादेय है ऐसा दृढ़ निश्चय करो । सुख के बाद दुःख और दुःख के