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१७८ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व दानादि सेरे स्वाभाविक धर्म नहीं हैं । "बुधजन" कवि कहते हैं कि पूर्वाचार्यों को इस शिक्षा को हृदयंगम करो और प्रारम हितकारी मोक्षमार्ग में लगो ।।१३।।
दूसरी हाल (मोगीरासा या नरेत छन्द) पद्य-सुनरे जीव कहत हूँ तोकों, तेरे हित के काजे।।
छहे निश्चल मन जब तू धारे, तब कछु इक तो लाज । जो दुःख से पावर तन पायो, वरन् सफू सौ नाहीं । कारे दार भुबो अरु जीयो, एक सांस के माहीं ।।।
२-१-१४ मर्थ-हे प्राणी ! तू (मन लगाकर) सुन । मैं तेरी हो भलाई की बात कहता हूँ । जब तू एकाग्रचित्त हो इस बात को समझेगा तब तुझे अपने पूर्वकृन मिथ्यास्त्र रूप भावों के कारण स्वयं पर लज्जा पाने लगेगी। तू ने एक श्वास में १८ बार जन्म-मरण का जो दुःख उठाया है उसका वर्णन नहीं हो सकता । ऐसे दुःखों से निकलकर काललब्धि वश भूमि, जल, पावक, वायु और वनस्पति रूप स्थावर का प्रत्येक शरीर प्राप्त किया ॥१४॥ पण-काल अनंतानंत रह यो गों, पुनि विकलत्रय हूबो ।
बहुरि प्रसनी निपट अज्ञानी, छिन-छिन जीयो मूबो । ऐसे जनम गयो करमन-कश, तेरो वश नहिं चाल्यो।
पुण्य-उदय सैनी पशु हूबो, तब हूँ मान न माल्यो । २-२०१५
अर्थ-हे प्राणी ! तू ने अनंतकाल तो स्थावर पर्याय का शरीर धारण कर बिता दिया। फिर मंद-कषाय-वश दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय (विकलत्रय) की पर्याय प्राप्त की। फिर असैनी पंचेन्द्रिय हुँमा परन्तु वहां मन के न होने से निपट अज्ञानी रहा और कर्मोदय के अधीन रहन से तेरा कुछ भी वश नहीं चल सका अर्थात् तु पुरुषार्थ न कर सका अत: तेरा जीवन व्यर्थ ही गया । यदि कमी पुण्योदय से सनी पंचेन्द्रिय पशु बन गया तो वहां भी तुझे (सम्यक) ज्ञान की प्राप्ति न हो सफी ॥१५॥
पद्य-जबर मिल्यो तिन तोहि सतायो, निबल मिल्यो खायो।
मात-तिया समभोगी पापी, तातें नरक सिथायो । कोटिक बील काटत जैसे, ऐसी भूमि तहाँ है ।
रुधिर राध परवाह बहत है, दुर्गन्ध निपट जहाँ है ॥ २-३.१६
मर्थ-पशु पर्याय में अपने से अधिक बलवान के द्वारा सताया गया मोर कभी तू ने अपने से निवल प्राणी को सताया या मारकर खा गया । तू ने माता