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तुलनात्मक अध्ययन
लाभ ? जप-तप-संयम का कभी तूने भाचरण नहीं किया। न किसी को दान ही दिया किन्तु धन और रामा की सार सभान करते हुए उन्हीं के प्राशा जाल में बंधवार त ने इस मानव जीवन को हराया है। अब त वृद्ध हो गया । शारीर और सिर कांपने लगे । दान भी चलाचल हो रहे हैं । वे एक एक करके विदा लेते जा रहे है । चल ना फिरमा भी अब कि.मी लाठी के प्रवल बन बिना नहीं हो सकता। प्राशा रूपी गड्ढा इतना विस्तृत हो गया कि अब उसका भरना असंभव सा हो गया है । शारीरिक और मानसिक अनन्त वेदनाए तुझे चैन नहीं लेने देती फिर भी त प्रगो को सुखी समझाने का मन करता है। यही तेरी अज्ञानता है। दूसरों की उपदेश देता फिरता है-हित की बातें सुझाता है, पर स्वयं प्रहित के मार्ग में चल रहा है। इस तरह तेरा कल्याण कैसे हो सकता है ? इसका स्वयं विचार कर और अपने हित के मार्ग में लग | इसी में तेरी भलाई है । जिनेन्द्र ही तारण-तरण हैं । इसी से मैंने अब उन्हीं की शरण ग्रहण की है । इस तरह मन में कुछ गुन गुनाते हुए कविबर एक दिन बोल उठे
सरनगही मैं तेरी, जग जीवनि जिनराज जगतपति तारन-तरन, करन पावन जग हरन करन भव फेरी ।। हूँ'वृत फिरयो भरयो नाना दुःख, कहूं न मिनी सुम्न सेवी याते तजी पान की सेवा, सेवा राबरी हेरी ॥ परमें मगन बिसार्या मातम, धरो भरम जग करी।
ए मति तजू भजू परमातम, सो बुधि कीजे मेरी ॥
एक दूसरे दिन जिनेन्द्र श्रद्धा को और भी निर्मल बनाने हेतु अपनी प्रात्म कहानी कहते हुए तथा मोह रूपी फांसी को काटकर अविचल सुख प्राप्त करने तथा केवल ज्ञानी बनने की अपनी भावना को व्यक्त करते हुए कविवर कहते हैं
मेरी प्ररज कहानी सुनिये केवलज्ञानी। चेतन के संग जड़ पुद्गल मिल, मेरी बुधि वीरानी 11१।। भवदन माहीं फेरत मोकू, लखि चौरासी थानी । को तू वरनू तुम सम जानो, जन्म-मरण दुख खानी ॥२॥ भाग भलें तें मिले "अधजन" क, तुम जिनवर सुखदानी । मोह फांसि को काट प्रभू जी, कीजे केवलज्ञानी ।।३।। हूँ तो "बुधजन" ज्ञाता इष्टा, ज्ञाता तन जड़ सरधानी ।
वे ही अविचल सुखी रहेंगे, होय मुक्तिघर प्रानी ।।४।। यद्यपि मैं ज्ञाता हटा फिर भी मोह की यह बासना अन्त संसार का