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तुलनात्मक अध्ययन
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पल, वरवा, सिंघड़ा, ध्रुपद आदि अनेक राग-रागिनियों में पदों की रचना की। संगीत का माधुर्य सूर के पदों के समान ही प्रालोच्य फदि में भी लक्षित होता है ।
अन्तर्जगत् के चित्रण की दृष्टि से सूर के अनेक पद जन पदों के समान भावपूर्ण हैं । वात्सल्य, भूमार नोर शान्त इन तीनों रसों का जैसा परिपाक सूर के पदों में है, वैसा ही कविवर यषजन के पदों में भी विद्यमान है । विनम के पदों के प्रारम्भ में अपने प्राराध्य कृष्ण की स्तुति करता हुआ कवि कहता है :
प्रभु मोरे अवगुन चित न घरी समदरसी है नाम तिहारो, चाहो तो पार करो
प्रबको वेर नाथ मोहि तारो नहि पन जात टरो ॥
यहाँ तुलना के लिये कविवर बुधजन का एक पद उद्धृत किया जाता है। दृष्टव्य है कि दोनों के पदों में कितनी समानता है।
तम चरनन की सरम प्राय सूखपायो। प्रवलो चिर भव धन में ढोल्यो जनम जनम दुःख पायो ।।१॥ ऐसी सुख सुरपति के नाहीं सो सुख जात न गायो । अब सब संपति मो जर माई प्राज परमं पद लायो ।।२।। मन बच तन में एढ़ करि राखो, कबहुं न ज्या विसरायो। वारंवार बीनवे 'बुधजन, कीजे मन को भायो ।।३।।
सूरदास ने विषयों की ओर जाते हुए मन को रोका है और उसे नाना प्रकार से फटकारते हए मात्मा की ओर उन्मुख किया है । नाना प्रकार की आकांक्षाए ही इस मन को आकृष्ट कर विषयों में संलग्न कर देती हैं जिससे भोला मोर असहाय मानव विषमेच्छात्रों की अग्नि में जलता रहता है । सूरदास मानव के मज्ञान भ्रम को दूर करते हुए कहते हैं :
रे मन मूरख जन्म गमायो। कर अभिमान विषय संग राचमो, स्याम सरन नहिं प्रायो। यह संसार फूल सेमर को सुन्दर देखि भुलायो । वरनन लाग्यो रुई गई उहि, हाथ कछु नहिं प्रायो । कहा भयो प्रबके मन सोने, पहले नोहि कमायो ।
कहत सूर भगवन्त भजन विनु, सिर घुनि धुनि पछतायो । सथा
जादिन मन पंछी उड़ि जै है।