Book Title: Kavivar Budhjan Vyaktitva Evam Krutitva
Author(s): Mulchand Shastri
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur

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Page 171
________________ १४६ कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व होने वाले कर्म परमाणुषों में अनेक प्रकार का स्वभाव पड़ना प्रकृतिबंध है। उनकी संख्या का नियत होना प्रदेशबंध है । उनमें काल की मर्यादा का पड़ना कि अमुक समय तक जीत्र के साथ बंधे रहेंगे, स्थिति बंध है और फल देने की शक्ति का उत्पन्न होना अनुभाग बन्ध है। कर्मों में अनेक प्रकार के स्वभाव का पड़ना तथा उनकी संख्खा का होनाधिक होना योग पर निर्भर है। इस तरह "प्रकृतिबंध और प्रदेश बन्ध तो योग से होते हैं तथा स्थिति बन्ध अनुभःम बन्ध कषाय से 11" ___ "प्रकृतिबंध के पाठ भेद हैं।" ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, श्रायु, नाम, गोत्र मोर अन्तरराय । झानावरण कर्म जीव के ज्ञानगुरग को धातता है। इसके कारण कोई अल्पज्ञानी और कोई विशेष ज्ञानी होता है । ज्ञानावरग के ५ भेद हैं मतिझानावरण, श्रुतज्ञानाबरण, अधिज्ञानावरण, मनः पर्यय ज्ञानाबरण और केबल ज्ञानावरण । दर्शनावरण कर्म जीव के दर्शन गुण को आच्छादित करता है । दर्शनावरसा के नौ भेद हैं। चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनाधरण, अवधि दर्शनावरण, केवल दर्शनावरण, निद्रा, निद्रा-निद्रा, प्रचला, प्रचला-प्रचला और स्त्यानगृद्धि। जीव की सूख दुख का देदम-अनुभव देणार का होता है। वेदनीय कर्म के दो भेद हैं-सातावेदनीय और असातावेदनीय, "निजमात्मा में, पर प्रात्मा में या उभय पास्मानों में स्थित दुःख, शोक, ताप, माक्रन्दन, बघ और परिवेदन ये प्रसासावेदनीय फर्म के प्रावध हैं। प्राणि-अनुकंपा अति अनुकंपा दान, सराग-संयम आदि का उचित ध्यान रखना तथा शान्ति और शौच ये सातावेदनीय कर्म के प्रास्रव है ।" जीव को मोहित करने वाला कर्म मोहनीय कहलाता है । इसके दो भेद है-वर्शनमोहनीय और चारित्र मोहनीम । दर्शन मोहनीय' जीब को सच्चे मार्ग पर चलने नहीं देता है। इसके २८ भेद हैं। कविवर बुधजन ने इन्हें अपने साहित्य में भली भांति विवेचित किया है जिन्हें "तत्वार्थबोव," "पंचास्तिकाय" भाषा आदि ग्रंथों से भली भांति जाना जा सकता है । "कषाय क उदय से होने वाला आत्म का तीब परिणाम-धारित्र मोहनीय कर्म का प्राश्रव है।" जो निश्चित समय तक जीव को नर नारकादि पर्यायों में रोके रखता है वह प्रायू कर्म है । इसके चार भेद हैं-नरकायु, तिर्थचायु, मनुष्यायु और देवायु बहु १. जोगापयशिपमेशा ठिवि प्रभागारण कषायदोहोति । नेमिचन्द्र प्राचार्य : द्रब्य संग्रह : गाथा संख्या ३३, पृ० सख्या २२ प्रकाशक दि. जैन त्रिलोक शोष हास्थान, हस्तिनापुर (मेरठ) २. कवि वीतलन्धि : चन्द्रप्रभ चरित्र : सर्ग १८, श्लोक ९८ । ३. उमास्वामी : तरवार्थपूत्र अध्याय ६, सूत्र १० १२ ४. उमास्वामी : तस्वार्थसूत्र अध्याय ६, सत्र स० १४

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