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तुलनात्मक अध्ययन
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प्रारंभ और परिग्रह का भाव का के प्रश्रय पाया तियंवायु के श्राश्रव, प्रल्प आरंभ और अल्प परिग्रह का भाव मनुष्यायु के पात्र एवं सराग संगम, संगमासंयम, अकाम निर्जरा और बालतप देवायु के भाश्रय के हेतु हैं। जिसके कारण शरीर और गोपांग श्रादि की ना हो, वह नामकर्म है। नामकर्मके ४२ भेद हैं। जिसके निमित्त से जीव उच्च या नीच कुल में जन्म लेता है उसे गोत्र कर्म कहते । इसके दो भेद हैं- उच्च गोष और नीच गोत्र | "परनिन्दा, भात्म-प्रशंसा, दूसरों के अच्छे गुणों का आच्छादन और उनके दुर्गुणों का उद्भावन नीच गोत्र के प्राश्रव के हेतु हैं एवं पर प्रशंसा, आत्म-निन्दा, नम्रवृत्ति, और अभिमान का प्रभाव या कमी ये उच्च गोत्र के आश्रम के कारण हैं ।"
इच्छित वस्तु की प्राप्ति में बाधा उत्पन्न करने वाला कर्म अन्तराय है इसके पांच भेद हैं-दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय श्रौर उपभोगान्तराय, और वीर्यान्तराय । दानादि में दिधन उत्पन्न करन अन्तराय कर्म के श्राश्रव का हेतु है ।
उपरोक्त प्राठों कर्मो की उत्कृष्ट एवं जघन्य स्थिति का वर्णन भी कवि ने किया है। कर्मों के सिद्धान्त के विश्लेषण में कवि ने जंनाचार्य उमास्वामी के तत्वार्थसूत्र को अपना आधार बनाया है। जीव कर्मों को कब और कैसे बांधता है मौर उनका बंटवारा कैसे होता है इत्यादि बातों पर भी कवि ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ "तत्यार्थबोध" में प्रकाश डाला है । बन्ध, उत्कर्षण, अपकर्षण, सत्ता, उदय, उदीरशा, संक्रमण, उपशम, निधति और निकाचना कर्मों की इन मुख्य दल यवस्थाओं का वर्णन भी कवि ने किया है। इस प्रकार संक्षेप में कर्म सिद्धांत का निरूपण कविवर बुधजन ने अपने साहित्य में किया है ।
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जैन दर्शन के अन्यान्य विषय ज्ञान मीमांसा और स्याद्वाद के वन भी अपनी रचनाओं में कवि ने किये है | आमोत्थान की भूमिका के रूप में चतुर्दश गुणस्थानों का भी उल्लेख कवि ने अपने साहित्य में किया है।
(३) गीतिकाव्य के विकास में युधजन का योग
भारतीय गीतिकाव्य का प्रारंभ वैदिक युग से माना जाता है । गीतिकाव्य में संगीत की प्रधानता होती है | इसीलिये विद्वानों ने लयात्मक ध्वनि को गीत कहा है । संगीत हृदय में रहने वाले सत्य का व्यस्त रूप है । वह अखंड होता है । बाहर से देखने में वह श्रनेक प्रकार का दिखाई देता है, परन्तु मूल में वह एक ही है। वह अन्तर का श्रव्यक्त सत्य ही गीतिकाव्य का प्रेरणास्रोत है । समस्त गीतिकार संभवत: उसी से प्रेरणा प्राप्त करते हैं ।
गीतिकाव्यों में जो भित्रता मिलती है, वह स्थूल जगत् के प्रभाव का परिगाम है । अन्तर में व्याप्त उस तस्थ में श्रनेकता नहीं हो सकती। जैसे संस्कृति का
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उमास्वामी सत्यार्थसूत्र; प्रध्याय ६, सूत्र ह० २५-२६
दि० जैन पुस्तकालय, सूरत ।