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कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
बाह्य रूप देशकाल और वातावरण के प्रभाव से विभिन्न प्रकार का दिखाई देता है उसी प्रकार भाषा तथा शैली श्रादि के कारण गीतिकाव्य के बाहरी रूप में भिन्नता दिखाई देती है । परन्तु वस्तुत: उसमें भिन्नता नहीं है। इसलिये यह प्रावश्यक है कि हम विभिन्न देश और काल तथा विभिन्न दार्शनिक विचारों से प्रभावित गीतिकारों के मौलिक तत्वों तथा उनकी कलात्मक नि शेपतानों का तुलनात्मक विचार करें। गीतिकाव्य लोक काव्य है । उसे हम जनता का साहित्य भी कह सकते हैं । उसमें भावों की अभिव्यक्ति होती है तथा संगीत भी रहता है ।
संस्कृति साहित्य की भांति हिन्दी साहित्य में गीतिकाव्य का सर्वाधिक महत्यपूर्ण स्थान है। जैन कवियों ने संस्कृत, प्राकृत्त और प्रमभ्रश भाषाओं में भी अनेक सरसंगीत लिखे हैं। जिनमें प्रेम, विरह, विवाह, युद्ध और अमात्म-भावना की सुन्दर अभिव्यंजना हुई है। हममें संगीत है, रागात्मवाता है और लय है और इसी रष्टि से ये गीत रचे गये हैं।
"कविवर बुधजन" ने हिन्दी साहित्य को लावनी भजन और पद मादि के रूप में विपुल सामग्री प्रदान की है। विषय की दृष्टि से "बुधजन" के गीतों एवं पदों को अध्यात्म, नीति, आवार, वैराग्य, भक्ति स्वकर्तव्य निरूपण, आत्म-तत्व की प्रेयता और शृंगार-भेदों में विभक्त किया जा सकता है। प्रायः सभी पदों में घात्मालोचन के साथ मन. शरीर और इन्द्रियों की स्वाभाविक प्रवृत्ति का निरूपण कर मानव को सायधान किया है।
गीतिकाव्य में निम्न चारों तत्वों का रहना प्रावश्यक है। मे सभी गुण बुधजन की रचनाओं में पाये जाते हैं।
(१) संगीतात्मकता (२) किसी एक भावना या अनुभूति की अभिव्यक्ति (३) प्रात्मदर्शन और प्रास्मविद्या (४) वैयक्तिक अनुभूति की गहराई के साथ गेयता।
कवि वे अपने अन्तमन से जो प्रेरणा प्राप्त की, उसी को अपने पदों में अभिव्यक्त किया है। प्रारम-बेतना की जागृति उनके पदों का प्रारण है । प्रात्मानुभूति को लयपूर्ण भाषा में व्यक्त करना ही उन का उद्देश्य है । कविवर बुधजन ने विलावल राग को धीमी ताल पर अत्यन्त सुन्दर ढंग से गाया है। उनके इस पद में केवल भाषा की तड़क-भड़क ही नहीं है, किन्तु छन्द और लय का सामंजस्य भी है । उन्होंने निम्नलिखित पद में गहरी यात्मानुभूति का परिचय दिया है। कधि का मन और प्राए शान्ति-प्राप्ति के लिये कितना छटपटा रहा है ? देखिये
"हो मनाजी थारी वानि बुरी छ दुखदाई । निज कारज में नेक न लागत, परमों प्रीति लगाई ।।१।। या स्वभाव सों प्रतिदुख पायो, सो अब त्यागो भाई ॥२॥ "बुधजन" प्रौसर भाग न पाये, सेवो थी जिन राई ॥३॥