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कविवर
सप्लतत्व - विवेचन में अन्य दार्शनिकों की भांति कविवर बुधजन ने भी इनका सूक्ष्म एवं विशद विवेचन किया है - कषि ने तत्वार्थबोध में पृष्ठ संख्या २६ से पृष्ठ संख्या ५२ तक उपरोक्त विषय का ही स्पष्टीकरण किया है ।
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बुधजन :
व्यक्तित्व एवं कृतित्व
'जीव, जीव, श्राश्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष ये सात तब हैं। इनका श्रद्वान करने वाला सम्यग्दृष्टि हैं ।"
इन लवों की यथार्थता के सम्बन्ध में डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री लिखते हैं: - 'यह यथार्थ है कि जैन दर्शन का विकास मात्र तत्वज्ञान की भूमि पर न होकर याचार की भूमि पर हुआ है । जीवन शोधन की व्यक्तिगत मुक्ति प्रक्रिया और समाज तथा विश्व में शान्ति स्थापना को लोकेषणा का मूलमंत्र हिंसा है श्रतः मुमुक्षु के दुःखों से निवृत्ति प्राप्त करने के लिये तत्वज्ञान की आवश्यकता है। प्रयोजनीभूत तस्व सास हैं : – (१) जीव ( २ ) अजीब (३) श्राश्रव (४) बंध ( ५ ) संकर (६) निर्जरा (७) मोर । पु और एप से दोनी व ही के होने के कारण प्रथक् तत्व रूप में परिगणित नहीं हैं। इनको अलग मानने से तो पदार्थ हो जाते हैं ।' जीव तस्व- जो भूतकाल में जीता था, वर्तमान में जीता है और भविष्य काल में जीता रहेगा, जिसका कभी नाश नहीं होता। जैसे अग्नि में उष्शाता है उसी प्रकार जीव में चेतना गुरण है | वह चेतना गुरु कवि बुधजन के विचार से सीन प्रकार का होता है१. ज्ञान चेतना २ कर्म चेतना, ३ कर्मफल चेतना ।
सिद्ध श्रात्मानों में एवं सम्यग्दृष्टि जीवों में ज्ञान चेतना पाई जाती है। राग द्वेष की प्रधानता वाले यस जीव कर्म चेतना सम्बन्ध वाले है तथा स्थावर जीव कर्मफल चेतना युक्त हैं । वह अमूर्तिक है | चेतनागुरण संयुक्त है । कर्ता है, भोक्ता है, शरीर प्रभारण है, ऊर्ध्वगामी और उत्पाद व्यय तथा श्रीष्य युक्त है । श्रात्मा (जीव ) में वीतरागता, चेतना, शान, दर्शन, सुख, वीर्यं श्रादि गुण विद्यमान हैं। पर संयोग से राग, द्वेष, तृष्णा, दुःख श्रादि विकार आत्मा में निहित है । श्रतः श्रात्मा के यथार्थ स्वरूप द्वारा ही विकारी और पर संयोगी प्रवृत्ति को दूरकर उसे युद्ध और निर्मल बनाया जा सकता है ।
१.
डॉ० सुरेन्द्रनाथ दास गुप्त ने जीव तत्व का विश्लेषण करते हुए लिखा है:'यह स्मरणीय है कि जैनों के अनुसार आत्मा (जीव ) जिस शरीर में रहती है, उसे पूर्ण रूप से व्यापती है । परिणामतः मस्तक के बाल के प्रभाग से पैर के नाखून
जीव प्रजीव श्राश्रवाबंध, संवर निर्जर मोक्ष समंत्र । सातत्य इनका सरधान, सो नर सम्यक् वनवान ॥ बुधजनः तस्वार्थबोध: पृ० संख्या २६ पद्म संख्या १९३ उमास्वामी तत्वार्थ सूत्र, प्र० अध्याय ।
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