________________
१४०
कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
दृष्टिकोण संप तक श्राकुलता है तब तक दुःख है । स्वावलंबी व्यक्ति केवल भ्रात्मगुणों का अवलंबन करता है । स्वका अवलंबन करना यानी श्रात्मगुणों का अवलंबन करना और इनसे भिन्न राग द्वेषादि, शरीरादि, धनादि का अवलंबन छोड़ना, यही सुखी होने की प्रध्यर्थं भौषधी है । जेन संस्कृति का लक्ष्य हो जीव को स्वावलंबी बनाना है ।
मानव स्वावलबी कैसे बने, इसका रहस्योदघाटन इसमें किया गया है । तत्व-चिंतन और जीवन-शोधन ये दो जैन साहित्य के मूलाधार हैं । भ्रात्म-शोधन में सम्यक् श्रद्धा, ज्ञान के साथ सदाचार का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जैन धर्म सदाचार, अहिंसा, सत्य, अधीर्य, ब्रह्मचयं और अपरिग्रह रूप है। प्रत्येक श्रात्मा का स्वतंत्र अस्तित्व है । प्रत्येक श्रात्मा - राग द्वेष एवं कर्ममल से अशुद्ध है पर वह पुरुषार्थ से शुद्ध हो सकता है। प्रत्येक श्रात्मा परमात्मा बनने की क्षमता रखती है ।
जैन दर्शन निवृत्ति प्रधान प्रवृत्ति मार्ग है । रत्नत्रय ही प्रवृत्ति मार्ग है । सात तत्वों को श्रद्धा ही सम्यग्दर्शन है । आत्मा को तीन अवस्थाएं होती हैं, (१) बहिरात्मा (२) अन्तरात्मा ( ३ ) परमात्मा । जो शरीर और श्रात्मा को एक मानता है वह मिथ्यावादी, अज्ञानी बहिरात्मा है। जिसने शरीर आदि से भिन्न आत्मा को जाना है ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव अन्तरात्मा है । प्रन्तरात्मा के उत्तम, मध्यम, जघन्य ऐसे तीन भेद किये गये हैं । अरहंत एवं सिद्ध जीव परमात्मा कहलाते है । यह मानव जीवन बड़ा ही दुर्लभ है । मानव जीवन की दुर्लभता एवं उसकी उपयोगिता के सम्बन्ध में कवि का निम्न पद देखिये :
नरभवाय फेरि दुःख भरना, ऐसा काज न करना हो ।
नाहक ममत ठानि पुद्गल सों, करम जाल क्यों परना हो ॥ १ ॥ यह तो जड़ तू ज्ञान रूपी, तिलतुषज्यों गुरु वरना हो रागद्वेष तजि, भज समता को, कर्म साथ के हरना हो ॥ २ ॥ यो भवपाय विषय सुख सेना, गजचढ़ि ईंधन कोना हो । बुधजन समुझि सेय जिनवर पद, जो भव सागर तरना हो ||३|| नर भव पाय फेरि दुःख भरना, ऐसा काज न करना हो ॥
१.
जिनयर सिद्ध परमातम । सम्यक्ती सौ अन्तर प्रातम | बहिरात मिथ्या ज्ञानी । त्रिविध मात्मा कहे सुनामी ॥ ८२ ॥
बुधजन: तत्वार्थबोध, पृ० संख्या २२, पद्म संख्या ८२ प्रकाशक: कन्हैयालाल गंगवाल, लश्कर |