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भाव पक्षीय विश्लेषण
पालक गुरु से कहते हैं जिसमें बालक खान-पान के योग्य द्रव्यार्जन कर सके-अधकरी विद्या की ही शिक्षा देना । जहां बालक २०-२२ वर्ष का हो गया माता-पिता ने दृष्टि बदली और यह संकल्प करने लगे कि कब बालक का विवाह हो जाय ? इसी चिन्ता में मग्न रहने लगे । मन्ततोगत्वा अपने तुल्य ही बालक को बनाकर, संसार वृद्धि का ही प्रयत्न करते हैं । इस तरह यह संसार चक्र चल रहा है। इसमें कोई विरला ही महानुभाव होगा जो अपने बालक को ब्रह्मचारी बनाकर स्वपर के उपकार में प्रायु पूर्ण करे ।
प्राज से २००० वर्ष पूर्व श्रमण-संस्कृति थी। तब बालक गण मुनियों के पास रहकर विद्याध्ययन करते थे। कोई तो मुनिवेश में अध्ययन करते थे। कोई ब्रह्मचारी वेश में ही अध्ययन करते थे । कोई साधारण देश में विद्या प्रध्ययन करते थे । स्नातक होने के अनन्तर कोई तो गृहस्थावस्था को त्यागकर मुनि हो जाते थे, कोई माजन्म ब्रह्मचारी रहते थे, कोई गृहस्थ बनकर ही अपना जीवन निर्वाह करते में, परन्तु अब तो गृहस्थाचस्था छोड़कर कोई भी त्याग करना नहीं चाहता । सतत् गृहस्थ धर्म में रहकर जन्म गंवाते हैं। कुछ लोग मान के क्षेत्र में विभिन्न मतों की सृष्टि करते हैं । मारमा और ब्रह्म के सिद्धान्त का प्रतिपादन उपनिषदों में तथा अद्वैत वान्त के रूप में उपलब्ध होता है । वास्तव में यात्मवाद और ब्रह्मवाद ये दोनों ही स्वतंत्र सिद्धान्त हैं। किसी एक से दूसरे का विकास नहीं हो सकता । प्रथम सिद्धान्त के अनुसार अगणित प्रात्मा संसार में परिभ्रमण कर रहे हैं, और अगणित ही परमात्मा बन गये हैं । ये परमात्मा संसार की उत्पत्ति, स्थिति और लय में कोई भाग नहीं लेते। इसके विपरीत, ब्रह्मवाद के अनुसार प्रत्येक वस्तु ब्रह्म से ही उत्पन्न होती है और उसी में लय हो जाती है। विभिन्न प्रारमाए एक परबह्म के ही अंश हैं । जैन और सांख्य मुख्यतया प्रात्मवाद के सिद्धान्त को मानते हैं, जबकि वैदिक परंपरानुयायी ब्रह्मवाद को । परन्तु उपनिषद् इन दोनों सिद्धान्तों को मिला देते हैं और प्रास्मा तथा ब्रह्म की एकता का समर्थन करते हैं।
वस्तुत: बुधजन जैसे जैन कवि काव्य के माध्यम से दर्गन, जान, चारित्र की अभिव्यंजना करते रहे हैं । ये आत्मा का अमरत्व एवं जन्म-जन्मान्तरों के संस्कारों की अपरिहार्यता दिखलाने के पूर्व पर्वजन्म के आख्यानों का भी संयोजन करते रहे हैं। प्रसंगवश, चार्वाक, तत्वोप्लववाद प्रति नास्तिक वादों का निरसन कर प्रात्मा का
१. वीवारणी, ३,२५४/२६० २. डॉ० प्रा० ने० उपाध्येः परमात्म प्रकाश तथा योगसार की प्रस्तावना,
रायचंद्र शास्त्रमाला बम्बई, सन १६७४ ।