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कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
( धर्म और शुक्ल ) ये शुभ ध्यान हैं। ये दोनों ध्यान स्वर्ग व मोक्ष के साधक हैं। इससे यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि प्रारंभ के श्री ध्यान नरक व तिर्यच गति के साधक है ।
लोक की व्यवस्था के सम्बन्ध में कवि के विचार
लोक
जो समस्त द्रव्यों को अपने में अवकाश देता है उसे श्राकाश द्रव्य कहते हैं । आकाश द्रव्य के दो भेद हैं । १. लोकाकाश, २. श्रलोकावण । प्राकाश द्रव्य के जितने भाग में धर्माचिक द्रव्य निवास पाते हैं उनने भाग को लोकावरण और जहां अन्य कोई द्रव्य नहीं केवल आकाश ही आकाया है, उसे अककमा कहते हैं। यह सपूर्ण लोक धनोदधि वस्तवलय घनवातवलय और तन्वातत्रलय से वैद्रित है। लनुज्ञातवलय प्रकाश के प्राश्रम है और आकाश अपने ही याश्रय है । उसको दूसरे आश्रय की श्रावश्यकता नहीं है क्योंकि प्राकाश सर्वव्यापी है। धनोदधि वातवलय का वर्ण रंग के समान, धनवातत्रलय का वर्णन गोमूत्र के समान और तनुवातवलय का व अव्यक्त है ।" इस लोक के बिलकुल बीच में एक राजू चौड़ी, एक राजू लम्बी और चौदह राजू ऊंची त्रस नाड़ी है। इसका व्यास एक राजू है। त्रस जीवों की उत्पत्ति
स नाड़ी में होती है। बस नाड़ी के बाहर नहीं । यह क्षेत्र का प्रमाण स्वतः है किसी के द्वारा किया हुआ नहीं है । इस स्वतः के प्रमाण में कमी बेशी नहीं होती ।"
इस लोक के तीन भाग हैं। १. अधोलोक २. मध्यलोक ३. उर्ध्वलोक । मूल से सात राजू की ऊंचाई तक अधोलोक है। सुमेरू पर्वत की ऊंचाई (एक लाख चालीस योजन) के समान मध्य लोक है और सुमेरू पर्वत के ऊपर अर्थात् एक लाख चालीस योजन कम सात राजू प्रमाण ऊर्ध्वलोक है ।
श्रधोलोक
नीचे से लगाकर मेरू की जड़ पर्यन्त सान राजू ऊंचा अधोलोक है । जिस पृथ्वी पर अस्मदादिक निवास करते हैं उस पृथ्वी का नाम चित्रा पृथ्वी है। इसकी मोटाई एक हजार योजन है और यह पृथ्वी मध्यलोक में गिनी जाती है।
सुमेरू पर्वत की जड़ एक हजार योजन चित्रा पृथ्वी के भीतर है तथा निन्यानबे हजार योजन चित्रा पृथ्वी के भीतर है तथा निन्यानवे हजार योजन चित्रा पृथ्वी के ऊपर है और चालीस योजन की चूलिका है । सब मिलाकर एक लाख चालीस योजन ऊखा मध्यलोक है । मेरू की जड़ के नीचे से प्रोलोक का प्रारंभ है।
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बुधजन : तत्वार्थ बोध, पद्य ० २५, पृ० ४३ बुधजन : तत्वार्थ बोध पद्य सं० २६-३०, १० ४४