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कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व परगानुयोग
जो सम्बरज्ञान थावक और मनगार ( मुनि ) के चारित्र की उलति वृद्धि और रक्षा का साधन है ऐसे शास्त्रों की प्राचार्य धरणानुयोग पागम कहते हैं ।
गृहस्थ और मुनियों के प्राचरण नियमों का वर्णन चरणानुपांग के शास्त्रों में होता है।
द्वादशांग में भी प्राचारोग नामक अंग सबसे प्रथम प्रग है जिसमें मुनियों के चारित्र का सांगोपांग बर्णन है । भगवान के समवणारग में भी बारह सभामों में से भगवान के सन्मुख पहली सभा में मुनिगरा ही विराजते हैं चूकि भगवान के उपदेश को साक्षात् ग्रहण करके मोक्ष की सिद्धि करने वाले मुनि हो हैं । चारित्र सभी के द्वाग और सदा पूज्य है। अतः चरणानुयोग से पारिन का लक्षण जानकर उसे धारण करना चाहिये। द्रव्यानुयोग
जो शास्त्र, जीव-अजीव तत्वों को, पुण्य-पाप को, बंध-मोक्ष को भाव चुत के अनुसार जानता है उसे द्रव्यानुयोग कहते हैं ।
करणानुयोग विषयक साहित्य की तरह द्रष्यानुयोग विषयक जैन साहित्य भी बहुत महत्वपूर्ण है । भगवान महावीर उबत तत्त्वों के प्रधान ज्ञाता एवं प्रवक्ता थे । द्रव्यानुयोग विषयक साहित्य का मूलश्रोत श्रस का दृष्टिबाद अंग है । भगवान महावीर के पश्चात् प्राचार्य कुन्द कुन्द नेद्रव्यानुयोग सम्बन्धी साहित्य की रचना की। द्रव्यानुयोग के विषय को स्पष्ट रूप से ममझाने के लिये सबल युक्तियों का प्रयोग प्राचार्य कुन्द कुन्द ने किया है। क्योंकि वे इस अनुयोग के विषयभूत पदार्थों का सच्चा श्रदान कराना चाहते थे। उन्होंने जीवादि छह द्रव्य क सात तत्वों की व्याख्या इतने सुन्दर ढंग से की है कि मध्यस्थ भाव धारण करने वाला व्यक्ति इसके अध्ययन से वीतरागता की प्रेरणा प्राप्त कर लेता है। बीतरागता की प्राप्ति करना ही उनका प्रयोजन या । भगवान महावीर एवं गोतम गण घर के पश्चात् कुदकुदाचार्य का स्मरण इस बात का प्रमाण है कि वे जैन सिद्धान्तों के प्रभावक प्रवक्ता एवं ज्ञासा रहे हैं ।
इस ध्यानुयोग विषयक साहित्य को दो भागों में विभक्त किया गया है
१. गृहभेध्यनगाराणां, चारित्रोत्पत्ति परिक्षागम ।
चररणानुयोग समय, सम्यमान विजानाति ॥ प्राचार्य समन्तभद्रः रत्नकरड श्रावकाचार, श्लोक सं० ४५, पृ. सं. ३३ २. पं. टोडरमल : मोक्षमार्ग प्रकाशक, पृ० स० ३६३, किशनगढ़ । ३. जीवाजीरसुतत्वे, पुण्यापुग्ये च मंध मोक्षी छ ।
घव्यानुयोग दीप: अ तबिधा लोकमातनुते ।। प्राचार्य समन्तभद्रः रस्नकरंड श्रावकाचार, श्लोक सत्या ४६, पृ० स० ३४ ४. मंगलं भगवान वीरो, मंगल गौतमो गणो ।
मंगलं कुन्धकुन्दायो, जैन धर्मोस्तु मगलम् ।। मंगलाचरण ।