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बुधजन द्वारा निबद्ध कृतियां एवं उनका परिचय
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की दृष्टि से यह रचना अनुपम है। इसकी भाषा प्रज-मिश्रित खड़ी बोली है । कहींकहीं राजस्थानी भाषा के बाद भी मा गये हैं। भाषा-सरल, स्वाभाविक, मुहावरेदार मौर हत्य-स्पी है । प्रध्यात्म जैसे विषय को इतने सरल और रोचक ढंग से प्रस्तुत करना, कषि की बहुत बड़ी विशेषता है। इस पुस्तक में वैराग्य-वईक, शान्त रस ही प्रधान है तथा स्वाभाविक रूप से प्राए हुए उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक मादि प्रसंकार भी यत्र-तष पाये जाते हैं । इसमें चौपाई, नरेन्द्र छन्द, परिचन्द, सोरठा, बालचंद, रालाछन्द इन अन्दों का प्रयोग किया गया है। इसकी विविध छन्द युक्त पदावली पढ़ने में बहुत रुचिकर लगती है तथा सरलता से मर्थ स्पष्ट रहने से बड़ा मानन्द प्राता है और शान्ति मिलती है । वास्तव में यह रचना सभी इष्टियों से अनूठी है। कवि की यह रचना वि. सं. १८५६ को पास शुक्ल: वृतिया (क्षा दृती . दिन पूर्ण हुई । कविवर बुधमन की इस रचना के ठीक ३२ वर्ष बाद कवि दौलतराम (द्वितीय) ने छहढाला की रचना की थी।
हिन्दी जैन साहित्य के कवियों ने प्रध्यारम-रस से भरपूर ऐसी अनकों रचनाएं की हैं । पं. बनारसीदास, पं. भागचन्द, यानतराय, बुधजन, दौलतराम मादि कवियों ने अपनी पद रचनामों में मध्यात्म रस की मधुर-धारा बहाई है, उनमें से यह एक छहढाला है, जो सुगम शैली से वीतराग-विज्ञान का बोध कराने वाली है। खुषजन की छहळाला में एवं परवर्ती हिन्दी के जन कवि दौलतराम (द्वितीय) की यहवाला नामक रचना में क्या साम्य पाया जाता है। यह निम्न लिखित बातों से स्पष्ट है । यथा१. बुधजनकृत छहढाला का निर्माण वि. सं. 1859 वैशाख शुक्ला तृतीया
(प्रदाय तृतीया) को हुना था, जबकि दौलतराम कृत "छड्काला" का निर्माण उसके ठीक 32 वर्ष बाद वि. सं. 1891 वैशाख शुक्ला ततीमा
(अक्षय तृतीया) को हुआ था। 2. दोनों रचनाओं की छहों वालों में पर्याप्त साम्य है। 3, दोनों का प्राधार बादशानुप्रेक्षा प्रादि प्राचीन ग्रन्थ है। ४. दोनों रचनात्रों में विषय-चयन का क्रम निम्न प्रकार है:
बुधजन कृत छहढाला की प्रथम ढाल में बारह भावनाओं का वर्णन है। द्वितीय हाल में जीवों के चतुर्गति में भ्रमण सम्बन्धी दुःखों का वर्णन है। तृतीय ढाल में काल लब्धि और सम्पष्टि के भावों का वर्णन है। चतुर्थ हाल में अष्टांग निरूपण है। पंचम दाल में श्रावक-धर्म का वर्णन है। छठी काल में मुनि धर्म का वर्णन है और जगत् के जीवों को सम्बोधन है।
दौलतराम कृत "छहवाला" की प्रथम दाल में जीवों के संसार परावर्तन के साथ चारों गतियों के दुःखों का वर्णन है एवं संसारी जनों की गुरु की शिक्षा समझाई गई है। द्वितीय ढाल मैं संसार-भ्रमण के कारण भूत गृहीत, भगृहीत