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कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
७-जिनोपकार स्मरण स्तोत्र (१८७१ वि. सं.)
यह रपना एक प्रकार का स्तोत्र है। चौपाई, कुण्डलिया, सोरठा, छन्दों में लिखी गई है । भक्त जन अपने आराध्य के समक्ष अपने को दीन-हीन मानता है । बह अपने माराध्य में प्रनंत गुणों का समाबेश देखता है। चौपाई छन्द में कवि कितनी महत्वपूर्ण बात कह रहा है :
हे प्रभु ! जो लोग प्रापका भक्ति-भाष पूर्वक ध्यान करते हैं वे अापके समान बन जाते हैं। इसी कारण मैं आपका ध्यान करता हूं। मैं आपके अनंत उपकारों को जानता हूं ।
भक्त को इस बात का पूरा ज्ञान है कि स्त्री, पुत्र, आभूषण, धन, मकान ये सब वस्तुए' क्षणिक है अतः इनके उपजने व नष्ट होने में वह हर्ष-विवाद नहीं मानता । बहिरात्मा (भौतिकवादी) पन का त्याग कर अन्तरात्मा (ज्ञानी) बनता है । देहादि के स्वभाव को वह भली भांति जानता है कि ये देहादि क्षणिक हैं । वस्तुतः जीव मरता नहीं पर प्राणों के वियोग को व्यवहार में मरण कहा जाता है । भक्त जानी जन जानते हैं कि मनुष्य, देव, मंत्र तंत्र औषधि आदि भी इस जीव को मरने से बना नहीं सकते । वह अपनी ज्ञान निधि को ही सर्वश्रेष्ठ मानता है। वह अपने को ही सम्बोधित करते हुए कहता है । है प्रास्मन | तू तो ज्ञानस्वरूपी है । तथापि समवश अडवत हो रहा है। रागी-द्वेषी बन कर विपत्तियों में फंसा हुआ है। इसमें तेरी ही मूल है। कवि एक सुन्दर रष्टान्त देते हुए कहते हैं- यद्यपि दूध और पानी मिल जाते हैं तथापि वे दोनों अपनी अपनी सत्ता को नहीं छोड़ते । भिन्न-भिन्न ही रहते हैं 1 उसी प्रकार शान सष्टि से विचार करने पर शरीर व मारमा की भिन्नता भी स्पष्ट हो जाती है । क्योंकि शरीर जड़ है प्रवेतन है, नाशवान है, रूपी पदार्थ है जबकि प्रात्मा चेतन है, स्थायी है अरूपो है, ज्ञान, दर्शन शक्ति सम्पन्न है । अतः दोनों की एकता का कोई प्रश्न ही नहीं।
दोष बावनी पूरण भया, "बुधजन' पढ़ियों रचि बया ।। कवि बुधजन : खुषनन विलास (वोव बावनी) पाना नं. २१ हस्तलिखित प्रति के मापार से। २- तुम जिन ध्यान लोक जो करे, सो निश्चय तुम तुलिता धरे ।
तातें ध्यान कर हूं तोय, तुम उपगार बान में जोय ।। सुधजन : बुधजन विलास (जिनोपकार स्मरए स्तोत्र) पाना मं. १८-१९ हस्तलिखित प्रति ।