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कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व नृप के घर सारी सामग्री ताके ज्वर सपना ।
अरु दारिद्री केहू ज्वर है पार उदय अपना ।। राजा भी इस संसार में सुखी नहीं है और दरिद्र भी सुखी नहीं है । राजा के यहां यद्यपि संपूर्ण सुख-सामग्री विद्यमान है फिर भी तृष्णा के कारण वह सामग्री उसे दुःख और संताप ही पहुंचा रही है। दरिद्री सो अपने अपभ राम के कारण अभाव में दुःखी है ही । कविवर बुधजन आगे कहते हैं :
विपत्ति में कोई सगा सम्बन्धी भी साथ नहीं देता । संसार स्वार्थी है उससे सहायता की प्राशा करना दुराशा मात्र है । ऐसे अवसरों पर धर्म का ही केवल भरोसा किया जा सकता है । उनके ही शब्दों में सुनिये :
"नाती तो स्वारथ के साथी तोहि विपति भरना ।
वन-गिरि-सरिता-प्रगनि जुद्ध में धर्म ही का शरणा॥ मात्मन् । तेरे जितने भी सम्बन्धि-जन है, जिन्हें तू अपना बतलाता है, सब स्वार्थ के साथी हैं । अपना काम निकल जाने पर तुम्हारा कोई भी साथ देने वाला नहीं है । विपत्तियों का बोझ तुझे ही उद्याना होगा। वन में, पर्वतों पर नदी और अग्निकांडों में तपा युद्ध जैसे अवसरों पर केवल धर्म ही तुम्हें शरण दे सकता है। कविबर के शब्दों में ही धर्म की संक्षिप्त रूप रेखा देखिये :
चित बुधजन' संतोष धारना, परचिता हरना।
विपति पड़े तो समता रखना, परमातम जपना ।। प्रात्मन् । चित्त में सदेव संतोष धारण करना । दूसरों की प्राकुलता को दूर करना, विपति काल में व्याकुल न होकर समता धारण करना और निरंतर परमात्मा का पुण्य स्मरण करना यही धर्म है । जगत में धर्म के सिवाय कोई अपना नहीं है।
'धर्म बिन कोई नहीं अपना' इस प्रकार यह स्पष्ट है कि हिन्दी के जन कवियों के भजन व पद सदियों से हमारी अमूल्य-निधि रहे हैं। उन्होंने हमारे जीवन को प्रति क्षए नया उत्थान दिया है। इसमें अपरंपार शास्त्रीय मंथन सुपुष्त पड़ा है । कविवर बुधजन समझाना चाहते हैं कि मनुष्य पर्याय पाकर उसे विषय भोग में बिता देना बहुत बड़ी मुर्खता है । कैसा चुभता हा उदाहरण दिया है :
यों भव पाय विषय सुख सेना गजबकि ईधन ढोना हो।'
इस चित्र को प्रांखों के मागे सड़ा कीजिये । कैसा मूर्ख होगा वह पुरुष जो राजसी हाथी को ईधन ढोने के काम में प्रयुक्त करे ।
प्राध्यात्मिक पव तो अन्य कवियों ने भी लिखे हैं, परन्तु "बुधजन" के भजन अपनी अलग विशेषता रखते हैं । धानतराय, दौलतराम, भागचन्द आदि के समान