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बुधजन द्वारा निबद्ध कृतियां एवं उनका परिचय
अपने ज्ञानानन्द स्वभाव को, परिपूर्णता को, स्वातंत्र्य को एवं अस्तित्व को भी भूल रहा है और पर पदार्थों को सुख दुःख का कारण मानकर उनके प्रति राग-ष करता रहता है, जीव के ऐसे भावों के निमिस से पुदगल स्वतः शानावरणादि कर्म पर्याय रूप परिगमिस होकर जीव के साथ संयोग में आते हैं और इसलिये प्रनादि काल से जीव को पौद्गलिक देह का संयोग होता रहता है। परन्तु जीव और देह के संयोग में भी जीम और पुदगल बिलकुल पृथक हैं तथा उनके कार्य भी एक दूसरे से बिलकुल भिन्न एवं निरपेक्ष हैं। जीव केवल भ्रान्ति के कारण ही देह की दशा से तथा इष्ट अनिष्ट पर पदार्थों से अपने को सुखी छुःखी मानता है। वास्तव में अपने सुख-गण की विकारी पर्याय रूप परिणमित होकर जीव के साथ सयोग में पास है और इसलिये अनादिकाल से जीव को पोद्गलिक देह का संयोग होता रहता है । परन्तु जीब और देह के संयोग से भी जीव और पुदगल सर्वथा पृथक् हैं तथा उनके कार्य भी एक दुसरे से बिलकुल भिन्न एवं निरपेक्ष हैं। जीव केवल भ्रान्ति के कारण ही देह की दमा तथा इष्ट अनिष्ट पर पदार्थों से अपने को सुखी दुःखी मानता है। वास्तव में अपने सुख गुण की विकारी पर्याय रूप परिणमित होकर वह अनादिकाल से दुखी हो रहा है।
कवि ने बिषय को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि अब तक जीव वस्तु स्वरूप को नहीं समझ पाता तब तफ अन्य लाखों प्रयत्नों से भी मोक्ष का उपाय उसके हाथ नहीं लगता । इसीलिये इस ग्रन्थ में सर्व प्रथम पंचास्तिकाय और नव पदार्थों का स्वरूप समझाया गया है कि जिससे जीव बस्तु तत्त्व को समझकर मोक्ष मार्ग के मुल मन सम्यग्दर्शन को प्राप्त हों। प्रस्तिकायों और पपायों के निरूपण के पश्चात् इसमें मोक्ष मार्ग सूचक-चूलिका है। यह अन्तिम अधिकार शास्त्र रूपी मन्दिर पर रन कलश की भौति शोभा देता है।
सर्वप्रथम भाचार्य कुन्द-कुन्द ने अन्य जीवों की भलाई के लिये इस प्रन्य की रचना की और इसके रहस्य को जानकर प्राचार्य प्रमृतचन्द्र ने इसकी संस्कृत टीका की और उसकी हिन्दी वनिका हेमराज ने लिखी। इन रचनामों का मनन कर 'बुधजन' ने हिन्दी में इनका पद्यानुवाद किया । रचना का अध्ययन करने में मिथ्यात्व का नाश होकर सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है और सम्यक्त्व की प्राप्ति से प्राणी संसार समुद्र से पार होते हैं।
ग्रन्थ की महानता कविवर बुधजन के शब्दों में-"इसकी महिमा का वर्णन नहीं किया जा सकता। मैं मन, वचन, काय से इसकी वंदना करता है।"प्रन्थ रचना के प्रेरक संधी अमरचन्द दीवान का उपकार मानते हुए कवि कहता है--"संधी अमरचन्द दीवान ने क्या पूर्वक इसके हिन्दी पद्यानुवाद की मुझे प्रेरणा दी। मैंने श्रद्धा पूर्वक इस रचना का हिन्दी पद्यानुवाद किया ।" अन्य के अन्त में ये लपता
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परकारन कुदकुरव बलामी, ताका रहस्य अमृतचंद्र मानि ।