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कविवर बुधजन : जतिाल एवं शनिव शुद्ध स्वरूप [परमात्मा के सन्मुख होने के लिये व्यवहार नय की कोई उपयोगिता
भाषा की दृष्टि से यह रचना उत्कृष्ट नहीं है, तथापि विषय आध्यात्मिक होने से उपादेन है । ग्रन्थ के अन्त में कवि अपनी लघुता प्रकट करते हुए कहते हैं:
___ "मैंने अपनश के अन्य योगसार के प्राधार से भन्यजनों के हितार्थ इसे हिन्दी भाषा में लिखा है । यदि इसमें किसी प्रकार की त्रुटि हो तो सज्जन-जन इसमें मुघार कर ले ।"
__ इस रचना में कवि ने अपने नाम व रचनाकाल का उल्लेख भी किया है। जिससे स्पष्ट है कि कवि ने इसे सावन शुक्ला तृतीया मंगलबार वि० सं० १८६५ को पूर्ण किया ।
इस प्रकार स्पष्ट है कि "वर्द्धमान पुराण सूचनिका" और "घोगसार भाषा" हो कवि का अन्तिम रचनाएं हैं।
होय सवा तगाम, पान-पन रहै होषभर॥ करो सुपात्रो हान, इष्ट प्रभु पूज रछावो ।
धर्मातम संग करो, हरो अथ प्रभुगुन गावो । कषि बुधजन : वसंमान पुराण सूचनिका, पल सांस्था ७१, ८० हस्तलिखित प्रति, जयपुर। मिचय परमातम बरस, पिन व्योहार महोह।
परमातम अनुभौसमय, नय ज्योहार न कोई। सुधजन : योगसार भाषा, हस्तलिखित प्रति, पन सं. १०६, दि. जैम लणकरण पाया मंदिर, जयपुर ।
जोगसार अनुसार यह, भाषा भवि हितकार, दोहा बुधजन निज रचे, सज्जन सेहु सुधार ॥११०।।