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कविवर बुवजन : व्यक्तित्व एव कृतित्व
१२-पंचास्तिकाय-भाषा (१८६२ वि०सं०) ७. पंचास्तिकाय भाषा वि० सं० १८९२)
जयपुर के तत्कालीन दीवान संघी अमरचन्द की प्रेरणा से कविवर बुधजन ने इस ग्रन्थ की रचना की थी। यह कवि की अनूदित कृति है । यह जैन दर्शन के सिद्धान्तों के प्रतिपादक प्राकृत भाषा के महान ग्रंथ 'पंचास्तिकाय' का हिन्दी पद्यानुवाच है । इस कृति में ५५२ पद्य हैं । यह एक दीर्घकाय रचना है।
___ यह आचार्य कुन्द कुन्द के पंचास्तिकाय (प्राकृत) का हिन्दी पद्यानुवाद तो है, पर इसमें कवि की अपनी मौलिकता के भी दर्शन होते हैं। इसमें जैन दर्शन के सिद्धान्तों में से मुख्यतः षट् द्रव्यों का वर्णन विस्तार से किया गया है । जीव, पुद्गल धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय प्रोर आकाशास्तिकाय इन पांच प्रस्तिकाय द्रव्यों को बहुप्रदेशी एवं काल द्रश्य को एक प्रदेशी कहा गया है।
संपूर्ण ग्रंथ दर्शनशास्त्र की गहन व्याख्या प्रस्तुत करता है। इसमें प्रतिपादित वस्तुतत्व का सार इस प्रकार है :
विश्व अर्थात् अनादि-अनंत स्वयं सिद्ध सत् ऐसी प्रनंतानंत वस्तुओं का (छहों द्रव्य का) समुदाय । प्रत्येक वस्तु अनुत्पन्न एवं अविनाशी है । प्रत्येक बस्तु में में अनंत शक्तियां अथवा गुण हैं जो अकालिक नित्य हैं । प्रत्येक वस्तु प्रतिक्षण अपने कार्य करती है अर्थात नवीन दशाए'-अवस्थाए-पर्शायें धारण करती है तथापि के पर्यायें ऐसी मर्यादा में रहकर होती हैं कि वस्तु अपनी जाति को नहीं छोड़ती अर्थात् उसकी शक्तियों में से एक भी कम अधिक नहीं होती । वस्तुपों की (द्रव्यों को) भिन्नभिन्न शक्तियों की अपेक्षा से उनकी (दस्यों की) खह जातियां हैं-जीप द्रव्य', पुद्गल द्रव्य, धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, प्रकाश द्रश्य और काल द्रव्य जिसमें सदा मान, दर्शन, चारित्र, सुख प्रावि अनन्तगुण (शक्तियो) हों वह जीब द्रव्य हैं, जिसमें सदा वर्ण, गंध, रस, स्पर्श प्रादि अनन्त गुण हों, वह पुद्गल द्रव्य है शेष चार बन्यों के विशिष्ट गुण अनुक्रम से गति-हेतुत्व, स्थिति हेतुत्व, अवगाहन हेतुत्व तथा वर्तना हेतुस्व हैं । इन छह नव्यों में से प्रथम पांचद्रव्य सत् होने से तथा शक्ति अथवा शक्ति अपेक्षा से विशाल क्षेत्र वाले होने से प्रस्तिकाय हैं, काल द्रव्य 'अस्ति' है किन्तु काय नहीं है।
यह सर्व द्रव्य-अनंत जीवद्रव्य, अनंतानंत पुद्गलद्रव्य, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्म द्ध्य, एक अकाण द्रव्य तथा असंख्य काम द्रव्य स्वयं परिपूर्ण हैं और अन्य द्रव्यों से बिल्कुल स्वतंत्र हैं, वे परमार्थतः कभी एक दूसरे से मिलते नहीं हैं, भिन्न ही रहते हैं । देव, मनूष्य, तिर्यन्च, नरक, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, मादि जीवों में जीव पुदगल मानों मिल गये हों ऐसा लगता है किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है, वे बिलकुल पृषक हैं । सर्द जीव अनंतशानदर्शन, सुख, अल की निधि है तथापि, पर द्वारा उन्हें कुछ सुख-दुःख नहीं होता तथापि संसारी अज्ञानी जीव अनादि काल से स्वतः अशान पर्याय रूप परिएमित होकर