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बुधजन द्वारा निबद्ध कृतियां एव उनका परिचय
ने जीवन को गतिशील बनाने वाले अमूल्य संदेश भरे हैं। इसमें भक्तिमार्ग, सुभाषित नीति, उपदेश, विद्याप्रशंसा, वैराग्यभावना, प्रात्मानुभव के विषय में सात सौ दोहे लिखकर जिज्ञासुग्नों के लिए अपूर्व विज्ञान दिया है। इसमें बड़ी ही कला कुशलता के साथ अध्यात्म, वैराग्य और सदाचार की त्रिधारा प्रवाहित की गई है । 'इसकी रचना वि० संवत् १८७६ में हुई थीं।1
सतसई की रचना का उद्देश्य मानव को प्रसत् से सत् को प्रोर ले जाने का प्रतीत होता है । ग्रन्थ की प्रशस्ति में कवि स्वयं लिखते है
"भूख सहन करना पड़े तो कर लो । दरिद्रता सहन करना पड़े तो उसे भी . सहन कर लो। लोकापवाद सहन करना पड़े तो उसे भी सहन कर लो, पर कभी भी निन्दनीय कार्य मत करो। इसी प्रकार एक और अन्य पश्च में कवि कहता है ।
'मैने यह रखना अपनी अन्तः प्रेरणा से ही बनाई थी, अन्य कोई विशिष्ट वहश्य नहीं था। न किसी की प्रेरणा से, न किसी की प्राशा से मैंने यह रचना की है, किन्तु केवल अपनी बुद्धि को परिमाजित करने के लिए ही मैंने यह ( रचनने
देवानुराग शतक में कवि अपने आराध्य को अनंतगुणों और रूपों वाला देखता है और अपने आपको उनका वर्णन करने में असमर्थ पाता है । ५ कि नर पर्याय बार-बार नहीं मिलती प्रस: वह इस अवसर को चूकना नहीं चाहता । वह अपनी प्रार्थना किसी के माध्यम से नही वरन स्वयं ही करना चाहता है । यथा
जो में कहा और तें, तो न मिट उरझार । मेरी तो सोपं बनी, तातै करों पुकार' ।।
१. संवत् कारा से प्रसी, एक बरसते घाट ।
ज्येष्ठ कूष्ण रवि प्रष्टमी, हवो सतसई पाठ ।। सुषजनः पुषजन सतसई, पर सं० ६६६, पृ०सं० १४५, प्र० संस्करण, समावव । २. भूल सहो वारिद सहो, सहो लोक भपकार ।
निधकाम तुम मतिकरो, यहै प्राथको सार । धुधजनः बुषजन सतसई, तृ० प्रावृत्ति, पृ०सं० ७४१६६६, जैन ग्रन्थ रस्नाकर कार्यालय, बम्बई, प्रकाशन । ३. ना काहू की प्रेरणा, ना काहू की प्रास ।
अपनी मति तीखी करन, बरभ्यो बरन विलास ॥ बुषमनः सुषजन सतसई, ४. प्रावृत्ति, पृ.सं. ७४/६९६, जग प्रन्य रत्नाकर कार्यालय, अम्बई प्रकाशन । ४. बुधजनः सुषज. सतसई, पद्य संख्या १३ पृ०सं ३, प्र० संस्करण सनावद । .