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कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व कर -कष्टते (५८१) शब्द + : (भाववाचक में) दुःख - मां-दुःम् (६६, ६८४) सुख- प्रां-"मूखां (६५७)
नरक--नरका १६६६) इनके अतिरिवस बुधजन सतसई में शब्दों को बदलने की प्रवृत्ति भी पाई जाती है । यथा
स्थान का थान (१५, ११३) सुस्थिर का सुथिर (३०,६८)
सुस्थान का सुथान (४२६) कहीं कहीं-श के स्थाय पर स किया गया है । अथा
विशुद्धता का विसुद्धता (२५) अशक्त का असक्त (७) विषय का विसय (९१)
अशुचि का प्रसुचि (४५७) रचना में कहीं-कहीं ठेठ हिन्दी के शब्द भी पाये जाते हैं यथाकम लिंगोरे ८४, ठाठ ५१३, ठौर ५३६, कुछोर (६२) दाम का संक्षिप्तीकरण किया गया है । यथा
दान का दो (४१५) बुधजन सतसई में संज्ञाए तथा क्रियाए प्रोकारांत हैं। इसमें का विभक्ति के स्थान पर को का प्रयोग देखा जाता है । यथा
राजको (३६३) पहिवे को ४२८, संसारी को ५७५ । संक्षेप में इतना ही है कि--
भारतीय आर्य भाषा के मध्य एवं प्राधुनिक काल के संक्रांतिकाल में क्रियापद पर्याप्त रूप में विश्लेषणावस्था की ओर अग्रसर हुए और संयुक्त क्रियाओं का व्यवहार बड़ा । माधुनिक काल में क्रिया पद प्रक्रिया तो और भी सरल हो गई।
आधुनिक प्रार्य भाषाओं में तिङन्त रूप थोड़े हैं । इनमें कृदन्त रूपों को ही प्रधानता मिली है और संयुक्त क्रिया मों का प्रयोग बढ़ा है ।।
"बुधजन सतसई की भाषा अज मिश्रित दूढारी (राजस्थानी) है, किन्तु उसका रूप साहित्यिक है । अतः उसमें प्राये हुए क्रिया पदों पर अध्ययन प्रस्तुत
राजकुमारी मिश्र : हिन्दुस्तानी त्रैमासिफ भाग २५, पंक १-४ जनवरी दिसम्बर १६६४, हिन्दुस्तानी एफेजमो, इलाहाबार, पृ० ० २१४ 1