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कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
एक चरन ह नित पढ़, तो काटे अज्ञान । पनिहारी की लेज सौं, सहज कटे पाषाण ।। 108 || महाराज महावृक्ष की, सुखदा शीतल छाय । सेवत फस मासे न तो, छाया तो रह जाय ॥ 125 ।। पर उपदेश करन निपुन, ते तो लखे अनेक ।
करे समिक बोले समिक, ते हजार में एक ।। 223 ।। इस खण्ड के कतिपय दोहे तो पंच तंत्र और हितोपदेश के श्लोकों का अनुवाद प्रतीत होते हैं । तुलसी, कबीर और रहीम के दोहों से भी कवि अनुप्राणित प्रतीत होता है।
इन दोहों के मनन-चिंतन-स्मरण और पठन से प्रात्मा निर्मल होती है। हृदय पवित्र भावों से भर जाता है और जीवन में सुख-शान्ति का अनुभव होता है । इष्टान्ती द्वारा संसार की वास्तविकता चित्रण करने में कवि को अपूर्व सफलता मिली है। वस्तु स्थिति का बास्तविक चित्र प्रोखों के सामने मूर्तिमान होकर उपस्थित हो जाता है । कतिपय रष्टान्त प्रस्तुत हैं । यथा
इस जीव का इस जगत् में वास्तव में कौम पुत्र है और कौन स्त्री ? किसका धन एवं परिवार है ? जिस प्रकार धर्मशाला में देश-विदेश के, विभिन्न जातियों के, विभिन्न धर्मों के लोग एकत्रित हो जाते है, परन्तु थोड़े ही समय के पश्चात् सब बिछुट जाते हैं। जिस सम्पत्ति के लिये यह मानव निरंतर कष्ट उठाता है, भरते समय वह भी साथ नहीं जाती, यहीं पड़ी रह जाती है। जिसे नाना प्रकार से लिलाया पिलाया-सजाया-संवारा जाता है, वह देह भी यही पड़ी रह जाती है। इस संसार में जो भी भाया है उसे एक न एक दिन अवश्य ही जाना होगा । भव राजा दशरथ, लक्ष्मण और राम असे वली एवं न्याय-नीति पूर्वक जीवन व्यतीत करने वाले पुरुष भी जीवित नहीं रह सके तो झूठ, कपट प्रादि करने वाला तू कैसे चिरकाल तक जीवित रह सकेगा?
___कवि की चुभती हुई उक्तियां हृदय में प्रविष्ट हो जाती है तथा जीवन के प्रान्तरिक-सौदर्य की अनुभूति होने लगती है। सतसई के एक-एक दोहे में कवि
को है सुत को है तिया, काको धन परिवार । पाके मिले सराये में, बिछ रेगे मिरपार ॥५०३।। परी रहेगी संपदा, परी रहेगी काय । छलवलकर क्यों ना बचे, कान मपट ले जाय ।।१५।। माया सो नाहीं रझा, बशरण लक्ष्मण राम । तू वैसे रह नायगा, झूठ कमर का पाम ॥५२३।। बुधजनः बुधमन सतसई, पच सं. ५०३, ५१५, ५२३ प्र. संस्करण, सनावद।