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कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
"अपनी लघुता प्रकट करते हुए कवि लिखते हैं. हे प्रभु ! मैं आपके पवित्र चरणों में अपना मस्तक झुकाता हू' । प्राप कृपया मेरी प्रार्थना सुन लीजिए । मेरी प्रार्थना यही है कि आप मुझे ऐसी शक्ति प्रदान करें जो मझे स्वर्ग-मोक्ष के सुखों को प्राप्त करा दे । कवि ने रचना के अन्त में रचनाकाल वि० सं० १८५० माह सुदी पूनम दिया है।
३. वन्दना जखड़ी वि. सं. १८५५
कविवर बुघजन की यह हस्तलिखित कृति श्री दि० जन लूणकरण पांड्या मंदिर, जमपुर से प्राप्त हुई थी। यह लघुकाय कृति कवि की मौलिक रचना है। इसमें कवि ने निर्वाण काण्ड के वर्णन की भांति प्रकृत्रिम जिन चैत्यालयों, भारत के समस्त जन तीर्थ क्षेत्रों, उन सीर्थ क्षेत्रों से तप द्वारा निर्वाण प्राप्त करने वाले यतियों, जयघवल, समयसार, पंचास्तिकाय गोम्मटसार, त्रिलोक्सारादि ग्रन्थों की भक्ति पूर्वक बंदना की है, तथा कमों की जकड़न से छटे परहन्त, सिद्ध एवं छटने का प्रयास करने वाले प्राचार्य, उपाध्याय, साघु इन पंच परमेष्ठियों की भी बंदना की है. एवं अहां जहां सिद्ध क्षेत्र व अतिशय क्षेत्र है, उनका भक्ति-भाव से नाम-स्मरण किया है।
पह रचना अत्यन्त सरल भाषा में लिखी गई है। यह प्रतिदिन प्रातःकाल पाठ करने योग्य है। कवि ने रचना का प्रारंभ, चविणसि तीर्थकरों एवं विद्यमान बीस तीर्घरों की स्तुति से किया है । इस रचना में जहां जहाँ से जितने जीव सिद्ध पद को प्राप्त हुए हैं उनकी भी वंदना की गई है। जैन भक्ति साहित्य में प्राचीनकाल
१. सुनिये विनती माप घरवं सीस सभाकं ।
ठारासे पंचास माह सुवि पूरनवासी। बुधजन की पररास की सुरपुर वासी ॥17॥ दुधजनः बुधजन विलास (विमल विनेश्वर की स्तुति) पाना 18 पृष्ठ सं. 9-17 हस्तलिखित प्रति से। २. मादि तीर्थर प्रथमाह बम्बों, बदमान गुण गाबी।
प्रजितादि पारस जिनबरलों, पीस दोय मम मानी ॥ सीमंधर प्राधिक तीर्थगर, विरोह कोष माही जी।
सकल तीर्थङ्कर गुरागण गाऊ, विरहमान मा माजी ॥ शुषजन : वंदना कसड़ी, पन सं. १-२, हस्तलिखित प्रति, वि. जंग लूणकरण मंदिर, जयपुर ।