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यस्मान्नोद्विजते लोको, लोकान्नोद्विजते च यः । हर्षामर्षभयोद्वेगैः मुक्तो यः स च मे प्रियः ॥ १५ ॥ अनपेक्षः शुचिर्दक्षः उदासीनो गतव्यथः । सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥ १६ ॥ यो न हृष्यति न द्वेष्टि, न शोचति न काङ्क्षति । शुभाऽशुभपरित्यागी, भक्तिमान् यः स मे प्रियः ॥ १७ ॥ समः शत्रौ च मित्रे च, तथा मानाऽपमानयोः । शीतोष्ण-सुख-दुःखेषु समः सङ्गविवजितः ॥ १८ ॥ तुल्यनिन्दास्तुतिौनी सन्तुष्टो येन केनचित् । अनिकेतः स्थिरमतिः भक्तिमान् मे प्रियो नरः ॥ १९ ॥ ये तु धामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते । श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः ॥ २० ॥
- गीता, अध्याय - १२ भक्त के प्रायः ये सभी गुण पूज्यश्री में हमें दृष्टिगोचर होंगे।
ऐसे प्रभु-भक्त के श्रीमुख से निकले हुए उद्गार कितने महत्त्वपूर्ण होंगे? पूर्व प्रकाशित दो पुस्तकों के अभिप्रायों से इसका ध्यान आता है।
। इस पुस्तक का आमुख लिखनेवाले प्रवचन-प्रभावक, योगमार्ग के रसिक पूज्य आचार्यश्री यशोविजयसूरिजी महाराज, प्रवचनप्रभावक बन्धु युगल पूज्य आचार्यश्री जिनचन्द्रसागरसूरिजी म., पूज्य आचार्य श्री हेमचन्द्रसागरसूरिजी म. से हम अनुगृहीत हैं ।
- इन तीनों प्रकाशनों के सम्बन्ध में मूल्यवान् मार्ग-दर्शन-दाता विद्वद्वर्य पूज्य पंन्यास प्रवरश्री कल्पतरुविजयजी गणिवर के हम ऋणी हैं।
इस अवतरण-सम्पादन के कार्य में कहीं भी पूज्यश्री के आशय के विरुद्ध आलेखन हुआ हो तो मिच्छामि दुक्कडं की याचना करते हैं।
अन्य दो पुस्तकों की तरह इस पुस्तक को भी जिज्ञासु पाठकगण आन्तरिक भावना से पसन्द करेंगे और लाभान्वित होंगे ऐसी श्रद्धा रखते हैं।
- पंन्यास मुक्तिचन्द्रविजय गणि
- गणि मुनिचन्द्रविजय