Book Title: Jain Vidya 09
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 17
________________ जनविद्या सन्दोह (संस्कृत), 5. सुभाषित तन्त्र (संस्कृत), 6. तत्त्वार्थ टीका (संस्कृत) । इनके अतिरिक्त योगीन्द्र के नाम पर दोहापाहुड (अपभ्रंश), अमृताशीति (संस्कृत) और निजात्माष्टक (प्राकृत) रचनाएं भी प्राप्त होती हैं । पर यथार्थ में 'परमात्मप्रकाश' और 'योगसार' दो ही ऐसी रचनाएं हैं जो निर्धान्त रूप से जोइन्दु की मानी जा सकती हैं । कविश्री जोइन्दु की दोनों रचनाएं 'परमप्पयासु' अर्थात् 'परमात्मप्रकाश' और 'जोगसारु' अर्थात् 'योगसार' समन्वय की उदात्त भावना से अनुप्राणित हैं । साथ ही उक्त दोनों ग्रन्थों में ही अपनी अध्यात्मवादी विचारणा की अभिव्यञ्जना में कविश्री ने ही सर्वप्रथम 'दोहाशैली' को अपनाया है । यहां दोनों ग्रन्थों का क्रमशः सामान्य परिचय देना असंगत न होगा। परमप्पयासु (परमात्मप्रकाश) प्रस्तुत ग्रन्थ प्रश्नोत्तर शैली में आत्मा का प्रकाशन करता है । भट्ट प्रभाकर नाम के जिज्ञासु शिष्य ने कविश्री के सम्मुख संसार के दुःख की समस्या रखी । यथा गउ संसारि वसंता] सामिय कालु अणंतु । पर मई कि पि ण पत्तु सुहु दुक्खु जि पत्तु महंतु ॥ चउ-गइ-दुक्खहं तत्ताहं जो परमप्पउ कोइ । चउ गइ-दुक्ख-विणासयह कहहु पसाएं सो वि॥ 1.9-10 अर्थात् हे स्वामिन् ! इस संसार में रहते हुए अनन्तकाल बीत गया, परन्तु मैंने कुछ भी सुख प्राप्त नहीं किया, प्रत्युत महान् दुःख ही पाता रहा । अत: चारों गतियों के दुःखों का विनाश करनेवाले परमात्मा का स्वरूप बतलाइए। 'परमात्मप्रकाश' इस समस्या का सुन्दर समाधान है । इस ग्रन्थ में मधुर, सरल आत्मा की अनुभूतियां ही तरंगित हैं । यह दो अधिकारों (सर्ग) में विभक्त है । प्रथम अधिकार में बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा का स्वरूप, निकल और सकल परमात्मा का स्वरूप, जीव के स्वशरीर परिमाण की चर्चा और द्रव्य, गुण, पर्याय, कर्म, निश्चय, सम्यक्त्व, मिथ्यात्वादि का वर्णन है तो द्वितीय अधिकार में मोक्ष स्वरूप, मोक्षमार्ग, अभेद रत्नत्रय, समभाव, पाप, पुण्य की समानता, मोक्षफल और परमसमाधि का उल्लेख है। __विषय प्रतिपादन की दृष्टि से कविकाव्य में औदात्य के अभिदर्शन होते हैं । कविश्री का 'जिन' शिव और बुद्ध भी है । आपके द्वारा निरूपित परमात्मा की परिभाषा में केवल जैन ही नहीं अपितु वेदांत, मीमांसक और बौद्ध भी समा सके हैं ।10 विभिन्न दृष्टिकोणों11 से प्रात्मा का वास्तविक रहस्य समझना ही कविश्री का अभीष्ट रहा है। आपने जैनेतर शब्दावलि का भी व्यवहार किया है ।12 कविश्री जहां पारिभाषिक तथ्यों का जिक्र करते हैं वहां वे रूढ़ हो जाते हैं। विषयों की निस्सारता और क्षणभंगुरता का उपदेश देते हुए भी कविश्री ने कहीं पर भी कामिनी, कंचन और गृहस्थ जीवन के प्रति कटुता प्रदर्शित नहीं की है ।13

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