Book Title: Jain Vidya 09
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 66
________________ जैनविद्या को स्पष्ट करती है और माया को संसार का कारण बताती है । इस तरह सभी संतों ने संसार की क्षणभंगुरता को स्वीकार किया और माया और मिथ्यात्व को संसार का कारण माना । 52 श्रात्मा और परमात्मा आत्मा और परमात्मा के विषय में दार्शनिक क्षेत्र निर्विवाद नहीं रहा। प्रारंभिक वैदिक साहित्य में आत्मवाद का कोई विशेष उल्लेख नहीं मिलता । उत्तरकालीन उपनिषद् साहित्य में उसकी अवश्य चर्चा हुई है । कठोपनिषद् में उसके तीन भेद किये गये हैं- ज्ञानात्मा, महदात्मा और शांतात्मा । डायसन की दृष्टि में छांदोग्योपनिषद् में इन्हीं भेदों को शरीरात्मा, जीवात्मा और परमात्मा की संज्ञा दी है । 16 बौद्धधर्म का आत्मा अव्याकृतता से चलकर अनात्मवाद और निरात्मवाद तक पहुंचा । 17 न्याय-वैशेषिक में जीवात्मा तथा परमात्मा के रूप में उस पर विचार किया गया है। जैनदर्शन मुख्यरूप से आत्मप्रधान धर्म है । उपनिषद् दर्शन निश्चितरूप से उससे प्रभावित है । जैन आगम में जैनदर्शन के अनुसार ग्रात्मवाद की अच्छी मीमांसा की गयी है । अध्यात्मवादी कुन्दकुन्द ने उसी के आधार पर आत्मा का सुन्दर विवेचन अपने सारे ग्रन्थों में किया है । योगीन्दु ने उन्हीं का अनुकरण कर आत्मा को ही केन्द्रित करके अपनी बात कही है । उन्होंने आत्मा के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए उसके तीन भेद कर दिये - बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा । मिथ्यात्व के वशीभूत होकर जो परमात्मा को नहीं समझता हो, संसार के विषय-पदार्थों में आसक्त रहता हो और देह को ही आत्मा मानता हो, वह बहिरात्मा है । 18 जो सांसरिक पदार्थों को त्याग देता है, परमात्मा के स्वरूप को समझने लगता है और आत्मा की शुद्ध अवस्था पाने के मार्ग पर चलने लगता है वह अन्तरात्मा है । जो अष्टकर्म-विमुक्त निर्मल, निष्कल, शुद्ध, जिन, विष्णु, बुद्ध, शिव और शांत है उसे परमात्मा कहा गया है। 19 आत्मा की ये तीन अवस्थायें हैं, इन अवस्थाओं में बहिरात्मा संसारी है वह देह और आत्मा को एक मानकर शारीरिक सुख को ही सुख मानता है परन्तु अन्तरात्मा अवस्था में साधक देह और आत्मा को पृथक् मानने लगता तथा संसार से विरक्त हो जाता है । तृतीय और अन्तिम अवस्था परमात्म पद की है जो परम विशुद्ध और निरंजन है । इसी ज्ञानमय, परमानंदस्वभावी, निरंजन, शांत, शुद्ध बुद्धस्वभावी, परमात्मा, परमब्रह्म, परमशिव परमविष्णु आदि संज्ञाओं से अभिहित किया गया है ( प. प्र. 2.107 ) । योगसार में उसी को पंडितात्मा और केवलज्ञानस्वभावी कहा है (गाथा 9, 26 ) | योगी ने बहिरात्मा का उतना वर्णन नहीं किया जितना अन्तरात्मा और परमात्मा का । परमात्मा का ही पूर्व रूप अन्तरात्मा है इसलिए उस अवस्था का वर्णन कवि ने काफी किया है । यह साधना की अवस्था है इसलिए यह वर्णन चारित्रप्रधान हो गया है । उसी के माध्यम से परमात्मावस्था की प्राप्ति होती है । उसी को शुद्ध स्वरूप और समभाव में प्रति

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