Book Title: Jain Vidya 09
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 81
________________ जैन विद्या यह तथ्य प्रच्छन्न नहीं रहेगा कि कबीर व्यवहारवाद की अपेक्षा निश्चयवाद की ओर अधिक भूके हुए थे । बाह्याडम्बरों का विरोध भी उन्होंने इसी भावना से किया है । साध्य की उपलब्धि के लिए सद्गुरु और सत्संग की प्राप्ति हर साधक ने परमावश्यक बतायी है । जैनसंतों ने गुरु का उपदेश पापनाशक, कल्याणकारक, शांति और आत्मशुद्धि करनेवाला माना है । योगीन्दु की दृष्टि में मिथ्यात्व, रागादि के बंधन से मुक्ति पाने और भेद - विज्ञान के अनुभव करने में गुरु की कृपा को अधिक महत्त्व दिया है । सद्गुरु के बिना वह कुतीर्थों में घूमता-फिरता रहता है ताम कुतित्थई परिभमइ धुत्तिम ताम करेइ । गुरु पसाएँ जाम नवि श्रप्पा देउ मुणेइ ॥ यो. सा. 41 67 परमात्मप्रकाश में भी योगीन्दु ने अरहंत, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और साधु इन पंच परमेष्ठियों को पंचगुरु कहकर प्रणाम किया है । उन्होंने उनकी परम्परागत विशेषताओं को नित्य, निरंजन, अनंतज्ञानस्वभावी, शिवमय, निर्मल, कर्मकलंकरहित, प्राप्त, वीतराग आदि विशेषणों से रूपायित किया है । परमात्मप्रकाश के प्रारंभिक प्राठ दोहों में सद्गुरु का ही महत्त्व बताया है । कबीर ने भी निर्गुण साधना में गुरु के महत्त्व को इससे कम नहीं प्रांका । उनकी दृष्टि में सद्गुरु का पाना अत्यन्त दुर्लभ है । 19 गुरु को कबीर ने भी ब्रह्म ( गोविंद ) से भी श्रेष्ठ माना है | 20 रागादि विकारों को दूर कर ग्रात्मा ज्ञान से तभी प्रकाशित होती है। जब गुरु की प्राप्ति हो जाती है । 21 गुरु की महिमा का गुणगान करते हुए उन्होंने लिखा है अनंत किया उपकार । अनंत दिखावरण हार ॥ सब धरती कागद करो, लेखनि सब बनराय 1 सात समुद्र की मसि करौ, तउ गुरु गुन लिखा न जाय || 22 सद्गुरु की महिमा अनंत, लोचन अनंत उघाड़िया, नरभव की दुर्लभता, शरीर, गुरु आदि विषयों पर चिन्तन करने के साथ ही साधक अपने वेतन को आत्म-संबोधन से सन्मार्ग की ओर प्रेरित करता है। इससे प्रसद्वृत्तियां मन्द हो जाती हैं और साध्य की ओर भी एकाग्रता बढ़ जाती है, साधक स्वयं आगे आता है और संसार के पदार्थों की क्षणभंगुरता आदि पर सोचता है । योगीन्दु ने योगसार की रचना आत्मसम्बोधन के लिए ही की थी । 23 परमात्मप्रकाश का अभिधेय प्रभाकर भट्ट को संबोधित करने के साथ-साथ श्रात्म-संबोधन भी रहा है । अध्यात्म क्षेत्र से दार्शनिक क्षेत्र तक आते-आते ग्रात्मा का अस्तित्व एक विवादग्रस्त विषय बन गया । वेदान्तसार, सूत्रकृतांग, दीघनिकाय आदि प्राचीन ग्रन्थों में इन विवादों के विविध उल्लेख मिलते हैं । वे सभी सिद्धान्त ऐकान्तिक हैं । उनमें कोई भी सिद्धान्त आत्मा के वास्तविक स्वरूप पर निष्पक्ष रूप से विचार नहीं करता। जैनदर्शन ने निश्चय नय और व्यवहार नय के आधार पर इस विवाद को भी सुलझाकर तथ्य तक पहुंचाने का प्रयत्न किया है ।

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