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जनविद्या
ही विद्वानों ने निर्धारित किया है अतः यह बात सुनिश्चित है कि जोइन्दु छठी शताब्दी ईस्वी के न होकर इसके परवर्ती हैं । भट्टाकलंकदेव का काल 640-680 ईस्वी तथा प्राचार्य विद्यानन्दि का काल 775-840 ईस्वी माना गया है । अतः जोइन्दु के काल के विषय में पुनर्विचार की महती आवश्यकता है।
उक्त 'अमृताशीति' ग्रंथ जोइन्दु का ही है, इस बारे में कई प्रमाण प्राप्त होते हैं। वैसे तो डॉ. ए. एन. उपाध्ये प्रभृति कई विद्वानों ने इसे जोइन्दु का ग्रंथ स्वीकार किया है परन्तु इन्हें यह ग्रंथ उपलब्ध नहीं हो सका था। फिर भी कई प्राचीन व ऐतिहासिक उल्लेख इस ग्रंथ को जोइन्दु-प्रणीत प्रमाणित करते हैं जो कि निम्नानुसार हैं
1. प्राचार्य कुन्दकुन्द प्रणीत 'नियमसार' नामक ग्रंथ के टीकाकार पद्मप्रभमलथारिदेव (1140-1185 ईस्वी) ने अपनी 'तात्पर्यवृत्ति' नामक टीका में अमृताशीति के 19वें, 55वें, 56वें, 57वें तथा 61वें छन्दों को जो कि क्रमशः गाथा क्रमांक 104वीं, 43वीं, 180वीं, 124वीं व 147वीं की टीका में उद्धृत किये गये हैं, “तथा चोक्तममृताशीतौ” एवं "तथा चोक्तं योगीन्द्र देवः" कहकर उद्धत किया है।
2. जोइन्दु के चारों ग्रंथों (परमात्मप्रकाश, योगसार, निजात्माष्टक और अमृताशीति) के सर्वमान्य टीकाकार मुनि बालचन्द (ई. 1350) जो कि सिद्धान्त चक्रवर्ती नयकीतिदेव के शिष्य थे, ने इन चारों ग्रंथों की टीकानों के प्रारंभ में एक ही पंक्ति दी है
"श्री योगीन्दुदेवरु प्रभाकरभट्टप्रतिबोधनार्थम्....अभिधानग्रन्थमं माडुत्तमदादियोल इष्टदेवतानस्कारमं माडिदयरु ................
इससे सिद्ध है कि 14वीं शताब्दी तक यह ग्रन्थ जोइन्दु के द्वारा विरचित सर्वमान्य था और ये वही जोइन्दु थे जिन्होंने परमात्मप्रकाश ग्रंथ की रचना प्रभाकरभट्ट नामक शिष्य के अनुरोध पर की थी।
3. 'अमृताशीति' के अन्त में उन्होंने अपना नामोल्लेख भी किया है ।
चंचच्चंद्रोरुरोचि रुचिरतरवचः क्षीरनीर प्रवाहे । मज्जंतोऽपि प्रमोदं परममरनराः संज्ञिनोऽगर्यदीये ॥ योगज्वालायमान ज्वलदनलशिखा क्लेशवल्ली विहोता।. योगीन्द्रो व: सश्चंद्रप्रभविभुविभुमंगलं सर्वकालम् ।। 80 ।।
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अमृताशीति के बारे में अन्य विप्रतिपत्तियां
. (क) डॉ. हीरालाल जैन ने 'परमात्मप्रकाश' की प्रस्तावना में इसे अपभ्रंश भाषा का ग्रंथ कहा है जबकि मुझे प्राप्त इसकी एकमात्र प्रमाणित कन्नड़ ताडपत्रीय प्रति इसे विशुद्ध संस्कृतभाषामय ग्रंथ बताती है तथा 'नियमसार' की टीका में उद्धत पांचों छंद भी संस्कृत के ही