Book Title: Jain Vidya 09
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 91
________________ जैनविद्या 77 हैं, फिर डॉ. हीरालालजी ने इसे अपभ्रंश भाषा का ग्रंथ किस आधार पर घोषित किया है ? यह अज्ञात है। (ख) डॉ. हीरालालजी ने इसे 82 छन्दों का ग्रंथ10 बताया है जबकि मुझे प्राप्त इस ग्रंथ की एकमात्र पाण्डुलिपि में 80 ही छंद हैं । डॉ. हीरालालजी को इस ग्रंथ की कोई प्रति प्राप्त नहीं हुई थी, फिर पता नहीं उन्होंने किस आधार पर इसे 82 छन्दों के परिमाणवाला कहा। (ग) प्रेमीजी इसे 'अध्यात्मसंदोह' के अपरनामवाला ग्रंथी मानते हैं जो कि निराधार मन्तव्य है । इस प्रकार का उल्लेख सर्वथा अनुपलब्ध है । (घ) जैनेन्द्रसिद्धान्त कोशकार ने इसे (अध्यात्मसंदोह को) प्राकृतभाषामय ग्रंथ कहा है12 परन्तु उन्होंने भी इसके बारे में कोई निश्चित वजह नहीं बतायी है। (ङ) 'अमृताशीति' को जैनेन्द्र सिद्धान्त कोशकार अपभ्रंश भाषा का ग्रंथ मानते हैं,13 परन्तु क्यों ? किस आधार पर ? यह प्रश्न वहाँ भी अनुत्तरित है। विषयगत वैशिष्ट्य 'अमृताशीति' का विषयगत अध्ययन भी अत्यन्त रोचक व महत्त्वपूर्ण रहा है । इसमें कई तथ्य ऐसे प्राप्त होते हैं जो कि 'परमात्मप्रकाश' तथा 'योगसार' की मान्यताओं से हटकर नवीन प्रमेयों का प्रतिपादन करते हैं, जैसे कि(अ) 'पुण्य' का महत्त्व स्वीकारना ___ 'अमृताशीति' में जोइन्दु ने पुण्य का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए पुण्यात्मा होना आत्महित या धर्मलाभ के लिए आवश्यक बताया है,14 उदाहरणार्थ भ्रात ! प्रभातसमये त्वरित किमर्थ-मथयि चेत् स च सुखाय ततः स सार्थः । यद्येवमाशुकुरु पुण्यमतोऽर्थसिद्धि पुण्यविना न हि भवन्ति समोहितार्थाः ।।2।। धर्मादयो हि हितहेतुतयाप्रसिद्धा: धर्माहनं धनत ईहित वस्तुसिद्धिः । बुद्धवेति मुग्ध हितकारी विदेहि पुण्यं पुण्यविना न हि भवन्ति समोहितार्थाः ॥3॥ इस प्रकार अन्य गाथानों में भी इसी तथ्य की पुष्टि की है । यद्यपि इसमें कोई सैद्धान्तिक विरोध नहीं है, फिर भी यह कथन परमात्मप्रकाश के प्रतिपादन से सर्वथा भिन्न है जिसमें वे पुण्य को पाप के समान हेय व तुच्छ गिनाते हैं ।15 (ब) समता का महत्त्व वैसे तो सम्पूर्ण जैन वाङ्मय में समता या साम्यभाव का बड़ा ही महत्त्व प्रतिपादित किया गया है परन्तु 'परमात्मप्रकाश' या 'योगसार' में समता शब्द या इसके वाच्य को इतना

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