Book Title: Jain Vidya 09
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 115
________________ जनविद्या. 101 -(राज+ सुप्) सुप्→ सु (3/16) (3/15) (3/124) (राई+सु) = राईसु (सप्तमी बहुवचन) 47. प्राजस्य टा-सि-डस्सु सणाणोष्वण् 3/55 सणाणोऽवण् [(स)-(णा) + (णोषु) + (अण्)] प्राजस्य (आज) 6/1 [(टा)-(ङसि)-(ङस्) 7/3] [(स)-(णा)-(णो) 7/3] अण् (अण्) 1/1 (प्राकृत में) (राज से परे) टा के स्थान पर णा होने पर, उसि और उस में जो होने पर (राज में निहित) अाज के स्थान पर अण् (विकल्प से) हो जाता है। राज से परे टा (तृतीया एकवचन का प्रत्यय) के स्थान पर रणा होने पर, इसि (पंचमी एकवचन का प्रत्यय), और ङस् (षष्ठी एकवचन का प्रत्यय) में णो होने पर राज में निहित आज के स्थान पर अण् (विकल्प से) हो जाता है। राज- (राज+टा) = (राज + णा) = (रण + णा) = रण्णा (तृतीया एकवचन) (राज+ ङसि) = (राज+णो) = (रण + णो) = रण्णो (पंचमी एकवचन) (राज+ ङस्) = (राज+णो) = (रण + णो) = रण्णो (षष्ठी एकवचन) 3/56 48. पुस्यन प्राणो राजवच्च पुस्यन प्रारणो राजवच्च [ (पुंसि) + (अनः) + (प्राणः) + (राजवत्) + (च)] पुसि (पुस्) 7/1 अनः (अन्) 6/1 प्रारणः (आण) 1/1 राजवत् (अ) = राजन् के समान च (अ) = और (अन् अन्तवाले) पुल्लिग शब्दों में अन् के स्थान पर प्रारण विकल्प से हो जाता है। और राजन् के समान भी प्रयोग (होता है)। अन् अन्तवाले पुल्लिग शब्दों में अन् के स्थान पर प्रारण विकल्प से हो जाता है । ऐसे सभी शब्द अकारान्त की तरह होते हैं । और अन् अन्तवाले पुल्लिग शब्द राजन् के समान भी प्रयोग में आते हैं। प्रात्मन् = प्रात्माण = अप्पाण या प्रत्ताण (अकारान्त) प्रात्मन् = प्रात्म = अप्प वा अत्त (राजन् की तरह) राजन् = राप्राण = रायाण (अकारान्त) 49. प्रात्मनष्टो रिसमा गइया 3/57 प्रात्मनष्टो णिमा गइया [(प्रात्मनः) + (ट:) + (णिपा)] णइा आत्मनः (प्रात्मन्) 5/1 टः (टा) 6/1 णिया (णिपा) 1/1 गइमा (णइना)1/1 आत्मन्→ अप्प से परे टा के स्थान पर णिया और णइग्रा (विकल्प से) हो जाते हैं।

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