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जैन विद्या
कपट हरि नहि सोचौ, कहा भयौ जे अनहद नाच्यौ, "अब मोही राम भरोसो तेरा, और कौन का करौं निहोरा”, “निरमल राम गुण गावै, सौ भगतां मेरे मन भावे", "जो पै पतिव्रता है नारी, कैसे ही रहैसि पियहि प्यारी", " तन मन जीवन सौंपि सरीरा, ताहि सुहागिन कहे कबीरा” जैसे अनेक कवित्त प्रपत्त भावना की ओर संकेत करते 1
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कविवर योगीन्दु सच्चे योग-साधक थे । उन्होंने अपने ग्रन्थों में योग की अच्छी चर्चा की है । ब्रह्मदेव ने अपनी टीका में उसे और अधिक स्पष्ट किया है। हठयोग की परम्परा से योगीन्दु का योग विशेष प्रभावित नहीं दिखाई देता, फिर भी उन्होंने, धारणा, ध्येय, यंत्र, मंत्र, मंडल, मुद्रा आदि को व्यवहार ध्यान का विषय बताया है वहीं उन्होंने पदस्थ को णमोकार मंत्र आदि का ध्यान, पिंडस्थ को आत्मा, रूपस्थ को अरहंत और रूपातीत को सिद्ध कहकर उनकी तुलना की है । ब्रह्मदेव ने दूसरे अध्याय की गाथा सं० 163 की टीका में पातंजलयोग को जैनयोग के साथ बैठाने का प्रयत्न भी किया है, परन्तु योगीन्दु का योग हठयोग नहीं था, उनका योग चित्त की चंचलता को वश में कर समभाव की ओर बढ़ना था और यही समभाव मोक्ष का साधक है । समदृष्टि, समभावी, आत्मज्ञानी, स्वयंवेदी प्रादि शब्द समानार्थक हैं जिनमें स्वात्मानुभव की चरम प्रकर्षता देखी जाती है ।
कबीर की योगसाधना सहज साधना वैराग न छुटसि काया”, “संतो, सहज समाधि न किया है परन्तु उनका योग योगीन्दु के का भी प्रभाव रहा है। उन्होंने षट्कर्म, की क्रियाओं का भी वर्णन किया है परन्तु हठयोग-साधना की अपेक्षा सहज-साधना, शब्द सुरति योग, अजपा जाप, अनहदनाद आदि की आराधना की है । "उल्टी चाल मिलै परब्रहा कौ, सौ सतगुरु हमारा" के माध्यम से उन्होंने सहज - साधना की जिसे उन्होंने तलवार की धार पर चलने के समान कहा । 31 सहज समाधि को ही उन्होंने सर्वोपरि माना
मानी जाती है "न मैं जोग चित्त लाया, विन भली" आदि जैसे उद्धरणों से योग का मूल्यांयोग से भिन्न था। कबीर के योग पर हठयोग आसन, मुद्रा, प्राणायाम और कुंडलिनी - उत्थापन
सन्तो सहज समाधि भली ।
सोई तें मिलन भयो जा दिन ते, सुर तन अंत चली ॥
श्रांख न मूंदू कान न धू, काया कष्ट न धारू । खुले नैंन में हंस-हंस देखूं, सुन्दर रूप निहारू ॥ कहूं सु नाम सुनुं सौ सुमरिन, जो कुछ करू सौ पूजा । गिरह उद्यान एक सम देखूं, और मिटाउं बूजा || 32
सहज समाधि से साधक शुद्धात्मावस्था की ओर बढ़ता है और उसमें समरस होकर तज्जन्य अनुभूति का आनंद लेता है, उसे ही ब्रह्मानुभूतिजनित आनंद और चिदानंद चैतन्य रस अध्यात्म के क्षेत्र में, ब्रह्मानंदसहोदर साहित्य के क्षेत्र में कहा जाता है । इस अनिर्वचनीय आनंद की प्राप्ति के लिए साधक को समरसता के महासमुद्र में अवगाहन करना पड़ता है। योगीन्दु ने इस अवगाहन को शिव और परमसुख माना है जो त्रैलोकसुख से भी अनुपम है,