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जनविद्या
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इन्द्रादि सुखों से भी श्रेष्ठतर है। इसी सुख को अनंत सुख की संज्ञा दी गई है ।33 इसी के आगे दो प्रक्षेपक दोहों के माध्यम से योगीन्दु ने विकल्परूप मन और आत्मारामरूप परमेश्वर के एक हो जाने पर पूजा के प्रयोजन को ही निरर्थक कहा है और वैसी स्थिति में तंत्र-मंत्रऔषध आदि जैसे साधनों की उपयोगिता को अस्वीकार किया है
मणु मिलियउ परमेसरहं परमेसरु वि मणस्स । बीहि वि समरसि हूवाह पुज्ज चडावउँ कस्स ॥ जेरण णिरंज रिण परिउ विसय-कसाहि जंतु । मोक्खहँ कारणु एत्तडउ अण्णु ण तंतु ण मंतु ॥ प. प्र. 1.123.2-3
जैनों के समान निर्गुणिया संत कबीर ने भी स्वानुभूति और समरसता को मूर्धन्य स्थान दिया है और उसी को पारमार्थिक सत्य और ब्रह्मज्ञान स्वीकार किया है। कबीर की प्रात्मदृष्टि जैनों का भेदविज्ञान है । तभी कबीर ने लिखा है
पाणी ही ते हिम भया, हिम है गया बिलाय । जो कुछ था सोई भया, अब कछु कहया न जाय ।।
इसी समरसता को प्राप्त करने के लिए कबीर ने अपने को राम की बहुरिया मानकर ब्रह्मा का साक्षात्कार किया है और नमक तथा पानी के दृष्टांत से उसकी एकता को रूपायित किया है
मेरा मन सुमरै राम कुं, मेरा मन रामहि प्राय । अब मन रामहि ह रहा, सीस नवाबी काय ।।34 मन लागा उनमन सौं, उनमन मनहिं विलग । लण विलगा पाणिया, पाणि लूण विलग ॥35
कबीर की यह विचारधारा अध्यात्मरसिक योगीन्दु की निम्न गाथा से प्रभावित दिखाई देती है जिसमें उन्होंने स्वयं और परमात्मा के बीच ऐक्य स्थापित किया है
जो परमप्पा सो जि हऊँ, जो हऊँ सो परमप्पु । इउ जाणेबिणु जोइया, अष्णु म करहु वियप्पु । यो. सा. 22
इस प्रकार अध्यात्मरसिक योगीन्दु और कबीर की अन्तःसाधना कालखंड की इतनी दूरी होने के बावजूद एक ही महापथ पर समानांतररूप से चलती हुई दिखाई देती है । यद्यपि दोनों साधक भिन्न-भिन्न संस्कृतियों के पुजारी रहे तथापि उनकी विचारधारा में इतनी अधिक समानता इस तथ्य की ओर संकेत करती है कि अध्यात्म के क्षेत्र में स्वानुभूति और समरसता में कोई विशेष अन्तर नहीं होता । अन्तर होता है अभिव्यक्ति का, जो गूंगे के गुड़ के समान अनिर्वचनीय है।