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जनविद्या
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अध्यात्म-साधना का केन्द्र मन है । उसकी गति चूंकि तीव्रतम होती है इसलिये साधक को उसे वश में करना आवश्यक हो जाता है । मन की शिथिलता साधना को डगमगाने में मूल कारण बनती है । इसीलिए योगीन्दु ने मन को पंचेन्द्रियों का स्वामी बताया और चंचल मनरूपी हाथी को भेद-विज्ञान की भावनारूप अंकुश से वश में करने के लिए प्रेरित किया
पंचहँ णायकु वसिकरहु जेण होंति वसि अण्ण । मूल विणट्ठइ तरु-वरहँ, अवसइँ सुहिं पण्ण ॥ प. प्र. 2.140 मणु-इंदिहि वि छोडियइ बुहुइ पुच्छिय ण कोइ। रायहँ पसरु णिवारियइ सहज उपज्जइ सोइ । यो. सा. 54
जैन प्राचार्यों ने मन को प्रायः करभ की उपमा दी है जिसे विषयवेलि अधिक रुचिकर होती है ।11 कबीर ने भी मन को गयंद और मैमता कहकर उसकी प्रचंड शक्ति की ओर संकेत किया है जो जीवों को पंचेन्द्रिय विषय-वासना में आसक्त कर लेता है। मैमंता मन मारि रे, घटही माहें घेरि ।12 उन्होंने अन्यत्र माया और मन के संबंध को अविच्छिन्न कहकर उसे सर्वत्र दुःख और पीड़ा का कारण कहा है ।13 माया मन को उसी प्रकार बिगाड़ देती है जिस प्रकार कॉजी दूध को बिगाड़ देती है । मन से मन की साधना भी की जाती है । मन द्वारा मन को समझाने पर चरम सत्य की उपलब्धि हो जाती है । चंचल चित्त को निश्चल करने पर ही रामरसायन का पान किया जा सकता है । एक अन्य पद में कबीर इसीलिए मन को संबोधित करते हुए कहते हैं-हे मन ! तू क्यों व्यर्थ भ्रमण करता-फिरता है ? तू विषयानन्दों में संलिप्त है फिर भी तुझे संतोष नहीं । तृष्णात्रों के पीछे बावला बना हुआ फिरता है । जहाँ भी पग बढ़ाता है उसे माया-मोह का बंधन जकड़ लेता है । आत्मारूपी स्वच्छ थाली को उसने पापों से कलुषित कर दिया है ।14
जैन साधकों ने एक ओर जहाँ चित्तशुद्धि को मुक्ति का प्रमुख साधन माना है वहाँ बाह्याडम्बर को रहस्य-साधना में बाधक माना है। काम, क्रोधादि विकारों के कारण परमात्मा का साक्षात्कार नहीं होता क्योंकि इन विकारों के कारण व्यक्ति का अन्तर्मन बड़ा कलुषित रहता है । जैसे धूलभरे दर्पण में कोई रूप दिखाई नहीं देता वैसे ही रागादि से मलिन चित्त में शुद्ध आत्मस्वरूप के दर्शन नहीं हो पाते । पंचेन्द्रियों के विकारों से उसका मन व्याकुल बना रहता है । यह स्वभाविक भी है क्योंकि प्रात्मज्ञान और विषयवासना ये दोनों परस्पर विरोधी तत्त्व एक साथ कैसे रह सकते हैं
राएँ रंगिए हियवडए देउ ण दीसइ संतु । दप्परिण मइलए बिंबु जिम एहउ जाणि रिणभंतु ॥ जसु हरिणच्छी हियवडए तसु गवि बंभु वियारी।
एक्कहिं केम समंति वढ़ बे खंडा पडियारि ॥प. प्र. 1.120-21 कवि ने योगसार में भी सांसारिक जीवन के उस तथ्य को स्पष्ट किया है जिसमें व्यक्ति की आयु गलती चली जाती है पर उसकी आशा क्षीण नहीं होती इसलिए उन्होंने धर्म