Book Title: Jain Vidya 09
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 78
________________ जनविद्या धर्मश्रवण, धर्म का ग्रहण, धारण, श्रद्धान, संयम, विषयसुखों से निवृत्ति, क्रोधादि कषायों का अभाव होना अत्यंत दुर्लभ है और उत्कृष्ट शुद्धात्म भावना रूप वीतराग निर्विकल्प समाधि का होना और भी कठिन है (प. प्र. टी. 1.16) । इसी संदर्भ में साधक कवि ने जीवहिंसा आदि के दोषों से उत्पन्न होनेवाले स्वघात और परघात की चर्चा की है (2.125 से 142)। इन सबसे कर्म बंधते हैं जो संसार का कारण है। ____ कबीर भी योगीन्दु के समान शरीर को क्षणिक और नश्वर मानते हुए उसे कागद की पुड़िया (कबीर ग्रंथावली पृ. 117), कागद का पुतला, जलबूंद आदि कहा है। उनकी दृष्टि में जीव और परमात्मा के बीच भ्रम, जिसे अविद्या या माया कह सकते हैं, व्यवधान बना हुआ है । उन्होंने संसार को 'सेमर के फूल' सा क्षणिक बताया है ऐसा यह संसार है जैसा सेमर फूल । दिन दस के व्यवहार में झूठे रे मन भूल ॥ एक अन्य स्थान पर कबीर ने संसार को एक हाट बताया है जिसमें जीव-रूपी व्यापारी कर्म-किराना बेचने के लिए पाता है । सही व्यापारी वह है जो समूचे कर्म-किराने को बेचकर घर वापिस जाता है ताकि उसे पुन. हाट न आना पड़े ।' यहीं कबीर ने योगीन्दु के समान पुण्य और पाप दोनों को बंधनरूप माना है कबीर मन फूल्या फिर, करता हूं मै ध्रमं । कोटि क्रम सिरि ले चल्या, चेत न देखें भ्रमं ।। मोह और माया को भारतीय चिंतन के हर पुजारी ने समान रूप से बंधन का कारण माना है । योगीन्दु ने उसे मूढ़ के लक्षणों में प्रबलतम मानकर त्याग करने का उपदेश दिया है। जोइय मोह परिच्चयहि मोहु ण भल्लउ होइ । मोहासत्तउ सयलु जगु दुक्खु सहतउ जोइ ।। प. प्र. 2 111 ॥ कबीर ने इसी मोह-माया को सारे संसार को नागपाश में बांधनेवाली, चांडालिनी, डोमिनी और साँपिन ग्रादि कहा है । उसे छाया के समान भी माना है जो प्रयत्न करने पर भी ग्रहण नहीं की जा सकती। फिर भी जीव उसके पीछे दौड़ता है । कबीर ने इस माया के विभिन्न रूप और नाम बताये हैं और उसे अकथनीय कहा है माया महा ठगिनी हम जानी। तिरगुन फांस लिये कर डोले, बोले मधुरी वानी, केशव के कमला ह बैठी, शिव के भवन भवानी । पंडा के मूरति ह बैठी, तोरथ में भई पानी । जोगी के जोगिन ह बैठो, राजा के घर रानी। काहू के हीरा ह बैठी, काहू के कोड़ी कानी ।। भगतन के भगतिन ह्र बैठी, ब्रह्मा के ब्रह्मानी । कहत कबीर सुनो हो संतो, यह सब अकथ कहानी ।।10

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