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जनविद्या
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पर इतना अवश्य कहना चाहती हूँ कि रहस्य का सम्बन्ध भावना से है । रहस्यभावना एक ऐसा आध्यात्मिक साधन है जिसके माध्यम से साधक, स्वानुभूतिपूर्वक आत्मतत्त्व से परमतत्त्व में लीन हो जाता है। यही रहस्यभावना अभिव्यक्ति के क्षेत्र में प्राकर रहस्यवाद कही जा सकती है । दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि अध्यात्म की चरमोत्कर्षावस्था की भावाभिव्यक्ति का नाम रहस्यवाद है।
अध्यात्मवाद का चरमोत्कर्ष ब्रह्मसाक्षात्कार है। साहित्य में इस ब्रह्मसाक्षात्कार को परमार्थप्राप्ति, आत्मसाक्षात्कार, परमपदप्राप्ति, परम सत्य, अजर-अमर पद आदि नामों से उल्लिखित किया गया है। इसमें 'अात्मचिंतन' को रहस्यभावना का केन्द्र-बिन्दु माना गया है । प्रात्मा ही साधना के माध्यम से स्वानुभूतिपूर्वक अपने यथार्थ स्वरूप का साक्षात्कार करता है । इस स्थिति तक पहुंचने के लिए उसे एक लम्बी यात्रा करनी पड़ती है । सर्वप्रथम उसे स्वयं में विद्यमान राग-द्वेष मोहादिक विकारों को विनष्ट करना पड़ता है। ये ही विकार संसारों को जन्म-मरण के दुःखसागर में डुबाये रहते हैं । इनको दूर किये बिना न साधना का साध्य पूरा होता है और न ब्रह्मसाक्षात्कार रूपी परमतत्त्व तक पहुँचा जा सकता है । यही कारण है कि प्राय: सभी साधकों ने उनसे विमुक्त होने का उपदेश दिया है । योगीन्दु ने भी ऐसा ही उपदेश देकर प्रात्मसाधना द्वारा रहस्य के मूल तक पहुँचने का मार्ग स्पष्ट किया है।
इस रहस्य का साक्षात्कार करने की दृष्टि से योगीन्दु ने सांसारिक विषय-वासनाओं को सबसे बड़ा बाधक तत्त्व माना है। इन बाधक तत्त्वों में राग-द्वेष विभाव कर्मबंधन का कारण है और यह कर्मबंध साधक को कोसों दूर रखता है (प. प्र. 2.79 ) । योगीन्दु ने परद्रव्यसम्पर्क को महान् दुःख का कारण माना है और इसके लिए उन्होंने दृष्टांत दिया है कि जिस प्रकार अग्नि लोहे के सम्पर्क से पीटी-कूटी जाती है उसी प्रकार दोषों के सम्पर्क से गुण भी मलिन हो जाते हैं अत: विभावरूप दुष्टों की संगति कभी नहीं करना चाहिए
जो सम-भावहँ बाहिरउ ति सहुँ मं करि संगु । चिता-सायरि पडहि पर अण्णु वि डज्झइ अंगु ॥ भल्लाहँ वि वासंति गुरण जहँ संसग्ग खलेहि ।
वइसाणरु लोहहं मिलिउ ते पिट्टियइ घणेहिं ।। 2.109-10 प. प्र. परमात्मप्रकाश की मूल भावना भी यही रही है जिसमें कवि ने अपने शिष्य प्रभाकर भट्ट को चौरासी लाख योनियों से मुक्त होने का उपदेश दिया है (प. प्र. 1.9-10)। परमात्मप्रकाश के टीकाकार ब्रह्मदेव ने इस तथ्य को और स्पष्ट करते हुए नरजन्म की दुर्लभता का क्रम बताते हुए कहा है कि प्रथमत: एक इन्द्रिय से चौइन्द्रिय रूप विकलत्रय पर्याय पाना दुर्लभ है फिर विकलत्रय से पंचेन्द्रिय, संज्ञी, छह पर्याप्तियों की संपूर्णता होना दुर्लभ है, उसमें भी मनुष्य होना अति दुर्लभ है फिर आर्य क्षेत्र दुर्लभ, उसमें उत्तम कुल पाना और भी कठिन है, फिर सुन्दर रूप, पंचेन्द्रियों की प्रवीणता, दीर्घायू, बल, शरीर-नीरोगता, जैनधर्म इनका मिलना उत्तरोत्तर कठिन है । संयोगवश इतना सब मिल भी जाय तो भी श्रेष्ठ बुद्धि, श्रेष्ठ