________________
जैन विद्या
को एक नये ढंग से परखने की कोशिश की है । उन्होंने कहा है कि पढ़ लेने से धर्म नहीं होता, पुस्तक और पिच्छी से भी धर्म नहीं होता, किसी मठ में रहने से धर्म नहीं होता और न केशलौंच करने से धर्म होता है । वास्तविक धर्म होता है निजात्मा में वास करने से, जहाँ राग और द्वेषपूर्णतः नष्ट हो जाते हैं (यो. सा. 47 - 63) ।
66
कबीर राम को परमात्मा के अर्थ में प्रयुक्त करते हुए गंगा स्नान आदि को व्यर्थ की मूढ़ता बताकर कहते हैं कि 'दादुर' तो सदैव गंगा में रहता है फिर भी उसे मुक्ति प्राप्त नहीं होती । 15 इसी प्रकार वे सिर मुंडवाकर साधु बनने का मजाक उड़ाते हुए कहते हैं
बार-बार होता है परंतु उसके स्वर्ग जानेवाली बात नहीं सुन पड़ी । ये सब व्यर्थ है इसलिए अपने विकारी मन को मूंडिये -
मूंड मुंडाये हरि मिले तो मैं लेऊं मुंडाय । बार-बार के मूंडते, भेड़ न बैकुंठ जाय ॥ केसों कहा बिगाड़िया, जे मुंडे सौ बार । मन को काहे न मूंडिए, जामें विषै विकार ।।16
साधना के प्रांतरिक और बाह्य स्वरूपों में से कभी-कभी साधकों ने बाह्याडम्बरों की प्रोर विशेष ध्यान दिया । ऐसी स्थिति में ज्ञानाराधना की अपेक्षा क्रियाकांड अथवा कर्मकांड की लोकप्रियता अधिक हुई परन्तु वह साधना का वास्तविक स्वरूप नहीं था । जिन साधकों ने उसके वास्तविक स्वरूप को समझा उन्होंने मुँडन, तीर्थस्थान, यज्ञ, पूजा आदि बाह्य क्रियाकांडों का घनघोर विरोध किया । यह क्रियाकांड साधारणतः वैदिक संस्कृति का अंग बन चुका था । योगीन्दु ने ऐसे समय ज्ञान के बिना तीर्थस्थान को बिल्कुल निरर्थक बताया
तित्थइँ तित्थु भमंताहँ मूढ़हं मोक्खु ण होइ || णा विवज्जउ जेण जिय मुणिवरु होइ ण सोइ ।
प. प्र. 2.85
मुनिरामसिंह ने भी उससे आभ्यन्तर मल धुलना असंभव माना है । 17 कबीर ने भी धार्मिक अंधविश्वासों, पाखंडों और बाह्याचारों के विरोध में तीक्ष्ण व्यंगयोक्तियां कसी हैं । कबीर का विचार है कि इनसे बाह्याचारों के ग्रहण करने की प्रवृत्ति तो बनी रहती है परन्तु मन निर्विकार नहीं होता इसलिए हाथ की माला को त्याग कबीर ने मन को वश में करने का आग्रह किया है ।
साधना की सफलता और साध्य की प्राप्ति के लिए बाह्याडम्बरों का त्याग प्रभेद अथवा निश्चय नय की दृष्टि से ठीक है पर भेद अथवा व्यवहार नय की दृष्टि से बिल्कुल अनुपयोगी नहीं कहा जा सकता । योगीन्दु ने निश्चय और व्यवहार नय की सीमा को परमात्मप्रकाश के मोक्षाधिकार में तरह-तरह की उपमानों के माध्यम से स्पष्ट किया है (295-154) | आत्मा-परमात्मा और स्व-पर द्रव्य के विवेचन के संदर्भ में इस विषय को अधिक गंभीरता से लिया है। कबीर के भी समग्र साहित्य का अध्ययन करने पर अध्येता के लिए