Book Title: Jain Vidya 09
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 68
________________ जैनविद्या ___ यहाँ योगीन्दु ने गुरु-प्रसाद की बात कही है। जैनधर्म में अर्हन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और साधु को पंच परमेष्ठी कहा गया है और उन्हीं को पंचगुरु भी माना जाता है । साधक कवियों ने उनकी स्तुतियाँ भी की हैं। यह परमात्मपद बहिरात्मा अथवा मिथ्यादृष्टियों को नहीं मिल पाता । मैं गोरा हूँ, काला हूँ, कृश हूँ, स्थूल हूँ, आदि कर्मजनित भाव हैं अतएव त्याज्य हैं । इसी तरह मैं ब्राह्मण हूँ, वैश्य हूँ, क्षत्रिय हूँ, शूद्र हूँ, पुरुष हूँ, नपुंसक हूँ, स्त्री हूँ, ये सभी भाव शरीर के हैं, अात्मा के नहीं । मैं तरुण हूँ, वृद्ध हूँ, रूपवान हूँ, वीर हूँ, पंडित हूँ, श्रेष्ठ हूँ, दिव्य हूँ, दिगम्बर हूँ, श्वेताम्बर हूँ, जैन हूँ, बौद्ध हूँ, आदि भेद व्यवहार नय से हैं । निश्चयनय से तो वीतराग सहजानन्दस्वभावी जो परमात्मा है उससे ये गुण भिन्न हैं ।22 अतः आत्मा को छोड़कर दूसरा कोई दर्शन नहीं, कोई ज्ञान नहीं और दूसरा कोई चारित्र नहीं । यही आत्मा तीर्थ है, गुरु है, देव है । फिर पाषाणनिर्मित मन्दिर या तीर्थ जाने की क्या आवश्यकता ? इसी विशुद्ध आत्मा का ध्यान करने से परमात्मपद की प्राप्ति हो जायगी। यहाँ कवि ने परिणाम (भाव) को प्रधान मानकर उसे ही बंध-मोक्ष का कारण कहा है। परिणामें बन्धु जि कहिउ मोक्ख वि तह जि वियारिण । 14 यो. सा. आत्मा केवलज्ञानस्वभावी है। आत्मज्ञान होने पर ही व्यक्ति सर्वज्ञ होता है । आत्मज्ञान होने से ही परब्रह्म की प्राप्ति होती है। विषय-कषाय-रूप विकल्पजाल को त्यागे बिना स्वसंवेदन ज्ञान नहीं होता और स्वसंवेदन ज्ञान बिना परमात्मा का ज्ञान नहीं होता । परमार्थ को समझनेवाला जीव छोटा-बड़ा नहीं होता । वह तो परमब्रह्म स्वरूप है (प.प्र.2.94) । व्यवहारनय से प्रात्मा सर्वगत है, जड़ है, देही है, शरीरप्रमाण है परन्तु शुद्धनय या निश्चयनय से वह नित्य, निरंजन, ज्ञानमयी, परमानंदस्वभावी, शांत और शिवस्वरूप है । मुनि रामसिंह ने भी निरगुण, निरंजन और परमात्मा की इन्हीं विशेषताओं का वर्णन किया है । उसमें काला गोरा, छोटा, बड़ा, ब्राह्मण, क्षत्रिय अादि भेद करना मुर्खता है ।। हरिभद्रसूरि ने “अाग्रहीवत् निनीषतयुक्तम्" कहकर इन विषमताओं से दूर रहनेवाले किसी भी प्राप्त, वीतराग को परमात्मा कहकर निष्पक्षता प्रर्दाशत की है। यही निष्पक्षता और असाम्प्रदायिकता योगीन्दु के काव्य में देखी जाती है। जहाँ वे कहते हैं कि जिस परमात्मा को मुनि परमपद, हरि, महादेव, ब्रह्मा, बुद्ध, और परमप्रकाश कहते हैं वह रागादिरहित शुद्ध जिनदेव ही है । उसी के ये सब नाम हैं जो परमप्पउ परम-पउ हरि हरु बंभु वि बुद्ध । परम पयासु भणंति मुणि सो जिण देउ विसुद्ध ॥ 2.200 प. प्र. सो सिउ संकर विण्हुँ सो सो रुद्द वि सो बुद्ध । सो जिणु ईसरु बंभु सो सो अणंतु सो सिद्ध ॥ 105 यो. सा. योगीन्दु के समान अन्य सन्त कवियों ने भी किसी धर्मग्रन्थ की प्रामाणिकता न मानकर स्वानुभूति को विशेष महत्त्व दिया है । कबीर ने भी इसी को सच्चा प्रानन्द कहा

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