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जैनविद्या
ष्ठित किया है। समभावी ही निर्वाण पाता है उसी को आत्मज्ञानी कहा है (प. प्र. 2.85-104)। यह अनंतचतुष्टयरूप स्वयंवेदी परमात्मा प्रत्येक व्यक्ति की देह में विद्यमान है अतः सिद्ध और स्वयं में भेद करने की आवश्यकता नहीं ।
जेहउ रिणम्मलु णाणमउ सिद्धिहिं णिवसइ देउ ।
तेहउ रिणवसइ बंभु पर देहहं मं करि भेउ ॥20 इसी तथ्य को योगसार में कवि ने इस प्रकार कहा है कि जो परमात्मा है वही मैं हूँ तथा जो मैं हूँ वही परमात्मा है । इसलिए विकल्प छोड़कर इस अवस्था को प्राप्त करना चाहिए।
जो परमप्पा सो जि हउं जो हउं सो परमप्पु ।
इउ जाणेविणु जोइया अण्णु म करहु वियप्पु ।। 22।। यह परमात्मा न किसी देवालय में है, न किसी पाषाण की प्रतिमा में और न किसी लेप अथवा चित्रांक की मूर्ति में है। वह देव तो अक्षय है, अविनाशी है, निरंजन है, ज्ञानमयी है । ऐसा शिव परमात्मा समभाव में ही प्रतिष्ठित होता है। समभावी मुनि वह है जिसके लिए सुख-दुःख, शत्रु-मित्र, प्रशंसा-निन्दा, पत्थर-सोना, जीवन-मरण समान है । इसी को समण कहा गया है ।
देउ ण देउले गवि सिलए पवि लिप्पइ राति चित्ति । प्रखउ णिरंजणु णाणमउ सिउ संठिउ समचित्ति ॥ 1.123, प.प्र.
यह परमात्मज्ञान गुरुप्रसाद के बिना नहीं होता। जब तक यह ज्ञान नहीं होता तब तक व्यक्ति या जीव कुतीर्थों में भ्रमण करता है। यह जिनदेव परमात्मा देह-देवालय में विराजमान है, परन्तु जीव ईंट-पत्थरों से निर्मित देवालयों में उसके दर्शन करता है, यह कितनी हास्यास्पद बात है । यह बात ऐसी ही है जैसे कोई मनुष्य सिद्ध हो जाने पर भिक्षा के लिए भ्रमण करे । सब कहते हैं कि जिनदेव तीर्थ में और देवालय में विद्यमान रहते हैं परन्तु जो जिनदेव को देह-देवालय में विराजमान समझता है ऐसा पंडित कोई विरला ही होता है।
ताम कुतित्थई परिभमइ-धुत्तिम ताम करेइ । गुरुहु पसाएं जाम रणवि अप्पा-देउ मुणेइ ॥ 41 ॥ तिहि देवलि देउ रणवि इम सुइकेवलि-वुत्तु । देहा देवलि देउ जिणु एहउ जारिण णिरुत्तु ।।42 ॥ देहा देवलि देउ जिणु जणु देवलिहिं णिएइ । हासउ महु पडिहाइ इहु सिद्धे भिक्ख भमेइ ।। 43॥ मढ़ा देवलि देउ णवि णवि सिलि लिप्पइ चित्ति । देहा-देवलि देउ जिणु सो बुज्झहि समचित्ति ।। 44 ।। तित्थइ देउलि देउ जिणु सन् वि कोइ भणेइ । देहा देउलि जो मुणइ सो बुहु को वि हवेइ ।। 45 ॥ यो. सा.