Book Title: Jain Vidya 09
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 65
________________ जैनविद्या सिद्ध वस्तु का साक्षात्कार कर चुके हैं अथवा अपरोक्षरूप से उपलब्ध कर चुके हैं, वे ही संत 1 संत ही चैतन्यस्वरूप है और चैतन्यस्वरूप ही श्रानन्दस्वरूप है ।"7 मुनि रामसिंह ने ( पाहुड़दोहा में ) 'संत' को 'शिव' से जोड़कर शिव की व्याख्या इस प्रकार की है। जरइ रग मरइ रग संभवइ जो परि को वि प्रणंतु । तिहुवरण सामिउ गारगमउ, सो सिवदेउ भिंतु ॥54॥ 51 संत साहित्य का निर्माण प्रायः ऐसे साधकों ने किया है जो परम तत्त्व की खोज में रहे हैं । उसकी खोज करते समय उन्होंने सदगुरु, प्रात्मनिवेदन, नामस्मरण, संसार की असारता, परमतत्त्व का निरूपण, असाम्प्रदायिकता, भेदविज्ञान, समरसता, चित्त-विशुद्धि स्वानुभूति आदि तत्त्वों पर विशेष बल दिया है । ये ही तत्त्व संत साहित्य के लिए आधारशिला के रूप में प्रमाणित हुए । योगीन्दुदेव ने अपनी रचनाओं में इन तत्त्वों का सुन्दर विश्लेषण किया है । त्रिलोचन, कबीर, नानक, प्रानन्दघन, सुन्दरदास, सहजोबाई, तुलसीदास आदि संतों ने उनके इस विश्लेषण का भरपूर उपयोग किया है । कबीर ने संत को निरवैरी और निष्काम बताया है तथा तुलसी ने उसे समचित्त, सरलचित्त और परोपकारी कहा है । संसार की सरता संसार अनित्य, अस्थिर और क्षणभंगुर है । संकल्प ( ममत्व ) और विकल्प ( हर्ष - विषाद) रूप परिणाम ( प. प्र. 1. 16 टीका) और राग-द्वेष कर्मबन्ध का कारण है ( प . प्र. 2.79 ) । यह जानता हुआ भी जीव मिथ्यात्व और अविद्या के कारण परपदार्थों में स्वत्व की भावना कर लेता है । आत्मानुभूति की इच्छा से विमुख होकर आठ मद, आठ मल, छह अनायतन व तीन मूढता इन पच्चीस दोषों में मग्न हो जाता है । इससे परमतत्त्व की प्राप्ति धूमिल हो जाती है । अतः साधक का प्रथम कर्तव्य यह है कि वह संसार की क्षणभंगुरता को स्वीकार करे बाह्य पदार्थों का परिग्रह छोड़े, आहार-मोह, लोभ, जीवहिंसा आदि का त्याग करे और द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म के संसर्ग से मुक्त होकर परमपद की प्राप्ति प्रयत्नशील हो ( प. प्र. 2. 108 - 126 ) । वस्तुतः मिथ्यात्व और कर्म ही संसरण के कारण हैं (प. प्र. 1.67,77) । कबीर ने इसी को " का माँगें कुछ थिर न रहाई, देखत नैन चल्या जग जाई " 8, "ऐसा यह संसार है जैसा सेमर फूल", नानक ने "ग्राध घड़ी कोउ नहिं राखत घर तैं देत निकार”10, सूर ने “मिथ्या यह संसार और मिथ्या यह माया " 11 और तुलसी ने "मैं तोहि अब जान्यो, संसार" 12 कहा है । योगीन्दु की इसी परम्परा में बनारसीदास ने “देखो भाई महा विकल संसारी 13, द्यानतराय ने " मिथ्या यह संसार है रे, झूठा यह संसार रे " 14 और भूघरदास ने “चरखा चलता नाहि ( रे ) चरखा हुआ पुराना रे 15 जैसी भावना की अभिव्यक्ति की है । इन पदों में संसार, शरीर, विषयवासना, पदार्थ, कर्म, मिथ्यात्व, कषाय आदि से राग-प्रवृत्ति को दूर करने का उपदेश दिया गया है। संत सिंगाजी ( सं. 1576 ) की "संगी हमारा चंचला, कैसा हाथ जो ग्रावे ( संतकाव्य 5.238 ), और दरिया की " जहि देखूं हि बाहर भीतर घट-घट माया लागी ( वही पृ. 404), वाणी संसार की असारता

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