Book Title: Jain Vidya 09
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 64
________________ जैनविद्या योगीन्दु के परमात्मप्रकाश के कुछ दोहों का उल्लेख किया है । रामसिंह के दोहा पाहुड अथवा पाहुदोहा पर योगीन्दु के ग्रन्थों का बहुत प्रभाव है | हेमचन्द्र ने रामसिंह के कुछ दोहों का उल्लेख किया है । इन सब प्रमाणों के आधार पर योगीन्दु का समय छठी-सातवीं शताब्दी के आसपास होना चाहिए । यह काल इस तथ्य से भी प्रमाणित होता है कि बौद्ध-सिद्ध संतों पर योगीन्दु की रचनाओं का पर्याप्त प्रभाव दिखाई देता है । अन्त साधना पर उन्होंने अधिक जोर दिया है जो योगीन्दु के विचारों का अनुकरण करता प्रतीत होता है । ये रचनाएं रहस्यवादी हैं । बौद्धगान और दोहा तथा हिन्दी काव्यधारा में पं. राहुल सांकृत्यायन ने इन सिद्धों का समय सं. 817 माना है । डॉ० विनयतोष भट्टाचार्य ने इसे सं. 690 निश्चित किया है । गन्दु का समय इन सिद्धों के पूर्व ही होना चाहिए । अतः योगीन्दु का काल छठी - सातवीं शताब्दी निर्धारित किया जा सकता है । 50 योगीन्दु एक रहस्यवादी कवि थे । उन पर प्राचार्य कुन्दकुन्द का प्रभाव स्पष्ट झलकता है । ब्रह्मदेव ने अपनी संस्कृत टीका में जहां-तहां कुन्दकुन्द की समान गाथाओं का उल्लेख करके इसे और प्रमाणित कर दिया है । रहस्यवाद की यही परम्परा आगे चलकर रामसिंह, देवसेन, प्राणंदा, आनंदघन, बनारसीदास, भूधरदास, द्यानतराय आदि जैन कवियों में पुष्पित हुई है और इसी को बौद्ध संतों ने कुछ और आगे बढ़कर अपनाया है। इसी का प्रभाव हिन्दी संत साहित्य पर पड़ा । निर्गुणियों के साथ-साथ सगुण परम्परा भी इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी । पं. परशुराम चतुर्वेदी आदि विद्वान् इस परम्परा को नवीं शती से प्रारम्भ होना मानते हैं परन्तु उन्होंने अपने अध्ययन में योगीन्दु का कोई उल्लेख नहीं किया | योगीन्दु की रचनाओं में प्रवेश करने के बाद अध्येता को बाध्य होकर यह कहना पड़ता है कि संतपरम्परा की मूल भूमिका योगीन्दु ने तैयार की और उसी पर उत्तरकालीन परम्परा आधारित रही है। संतों ने निवृत्ति और प्रवृत्ति मार्ग के बीच का मार्ग अपनाया है । संत कवि 'कागद की लेखी' की अपेक्षा 'आँखिन देखी' पर अधिक विश्वास किया करते थे । स्वानुभूति उनका विशेष गुण था । यह गुण उसी को प्राप्त हो सकता है जो राग-द्वेषादि विकारों को दूर कर परमात्मपद की प्राप्ति में सचेष्ट हो । पालि साहित्य में संत उसे कहा गया है जिसने इन्द्रियनिग्रह कर लिया हो । इसमें मन्त्र-तन्त्रादि की आवश्यकता नहीं, बल्कि स्वानुभव की आवश्यकता होती है । योगीन्दु ने संत शब्द की व्याख्या करते हुए यह स्पष्ट किया है कि रागादि विभावरहित साधक परमानन्दस्वभावी, शान्त और शिवस्वरूप होता है रिगच्च गिरंजणु सागमउ जो एहउ सो संतु सिउ तासु जो णिय-भाउ ग परिहरइ जो जाइ सय विणिच्च पर सो I परमाणंद-सहाउ मुणिज्जहि भाउ ।। पर भाउ रग लेइ । सिउ संतु हवेइ ॥ प. प्र. 1. 17-18 संत शब्द की यही व्याख्या उत्तरकालीन हिन्दी संत साहित्य में स्फुटित हुई है । महामहोपाध्याय गोपीनाथ कविराज के शब्द इस संदर्भ में स्मरणीय हैं- " जो सत्यस्वरूप, नित्य,

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