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सच्चा धर्म
धम्मु ण पढियई होइ धम्मु ण पोत्था-पिच्छियई। धम्मु ण मढिय-पएसि धम्मु ण मत्था-लुंचियइं ॥ राय-रोस बे परिहरिवि जो अप्पाणि वसेइ । सो धम्मु वि जिण-उत्तियउ जो पंचमगइ णेइ ॥
अर्थ-पढ़ लेने से धर्म नहीं होता, पुस्तक और पिच्छी से भी धर्म नहीं होता, किसी मठ में रहने से भी धर्म नहीं होता, न केशलुंचन से धर्म होता है।
जिनेन्द्रदेव ने कहा है-राग और द्वेष दोनों को छोड़ कर निज-आत्मा में वास करना ही धर्म है । यह धर्म ही पंचमगति अर्थात् मोक्ष ले जाता है।
योगसार 47-48