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जनविद्या
लिप्त नहीं होता उसी तरह यदि प्राणी प्रात्मस्वभाव में अनुरक्त हो तो वह कर्मों से निलिप्त रह सकता है । यथा
जह सलिलेण ण लिप्पियइ कमलाणि-पत्त कया वि।
तह कम्मेहिं ण लिप्पियइ जइ रह अप्प-सहावि ।। यो. सा. 92 इसके अतिरिक्त 'इन्दिय विसय जि सुक्खडा तित्थु जि वलि वलि जाइ' (प. प्र. 2.137) छेकानुप्रास जैसा अलंकार अभिव्यक्ति में प्रवाह और प्रभाव की सम्यक् अन्विति उत्पन्न करता है । इसी प्रकार हरि-हर जैसे प्रयोग में एक ओर जहाँ अभिव्यक्ति में ध्वन्यात्मकता का संचार हो उठा है वहाँ दूसरी ओर प्रवाहवर्द्धन उल्लेखनीय है । यथा
देहि वसंतु वि हरि-हर वि जं अज्ज वि ण मुणंति ।
परम-समाहि-तवेण विणु सो परमप्पु भणंति ।। प. प्र. 1.42 अभिव्यक्ति के प्रमुख अंगों में भाषा, अलंकार आदि तत्त्वों का महत्त्व महनीय है किन्तु जो भूमिका छन्द की है उसका महत्त्व सर्वाधिक है। मंत्र मूल्यवान है किन्तु मंत्र की महिमा तंत्र पर निर्भर करती है । यदि तंत्र सदोष और निष्प्रभ है तो मंत्र चाहे जितना तेजस्वी क्यों न हो लोक में उसकी प्रभावना अधिक नहीं होती। काव्याभिव्यक्ति में तंत्र वस्तुतः छन्द ही है । अक्षर, उनकी संख्या एवं क्रम, मात्रा, मात्रा-गणना तथा यति-गति आदि से सम्बन्धित विशिष्ट नियमों से नियोजित पद्य-रचना छन्द कहलाती है। छन्द की उत्पत्ति छद् धातु से मानी गई है जिसका अर्थ है रक्षण तथा आह्लाद । इसके द्वारा कवि का प्रायोजन सुरक्षित रहता है और वह इस प्रकार प्रबंधित रहता है कि पाठक अथवा श्रोता आनन्द से भर-उभर जाता है, अभिभूत हो जाता है । इतनी बड़ी भूमिका का सफल निर्वाह करता है छन्द । विवेच्य कवि ने कहने के लिए अनेक छन्दों का प्रयोग किया है जिनमें गाथा, स्रग्धरा, मालिनि, चतुष्पदिका तथा दोहा उल्लेखनीय हैं ।
अपभ्रंश का लाडला छन्द है दोहा । इसे यहां दूहा कहा गया है । विवेच्य कवि ने दोहा का सर्वाधिक प्रयोग किया है । योगसार की रचना दोहा छन्द में ही है । परमात्मप्रकाश की रचना भी अधिकांशत: दोहा छन्द में ही हुई है ।
इस प्रकार परमात्मप्रकाश और योगसार नामक ग्रंथों पर आधारित कविवर योगीन्दु का काव्यशास्त्रीय मूल्यांकन संक्षेप में जाना जा सकता है । छठी शती के अपभ्रंश कवि जोइन्दु उच्चकोटि के आत्मिक रहस्यवादी साधक हैं, कवि हैं । इनके परमात्मप्रकाश और योगसार में जीव और अजीव तत्त्व की उत्कृष्ट विवेचना हुई है । संसारी प्राणी के भव-भ्रमण से विमुक्त्यर्थ सन्मार्ग का प्रवर्तन कर कवि ने सचमुच बड़ा ही महत्त्वपूर्ण कार्य किया है । इस शुभ कार्य से जहां एक ओर काव्यशास्त्रीय सत्यं तत्त्व का संवर्द्धन हुआ है वहाँ दूसरी ओर शिवं तत्त्व की स्थापना सुन्दर शैली में की गई है । कविमनीषी जोइन्दु अपभ्रंश के सशक्त तथा प्रभावपूर्ण रचनाकार हैं जिनके काव्य को प्रतिष्ठित करने-कराने के लिए किसी की कोई संस्तुति की मावश्यकता नहीं है । वे सचमुच स्वयंभू हैं, मनीषी हैं और परिभू हैं ।