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जनविद्या
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भाषा में विभक्ति-सूचक प्रत्यय के स्थान पर परसर्ग के प्रयोग भी यत्र-तत्र परिलक्षित हैं । यथा
सिद्धिहि केरा पंथडा भाउ विसुद्धउ एक्कु ।
जो तसु भावहं मुणि चलइ सो किम होइ विमुक्कु ॥ प. प्र. 2.69 यहाँ 'सिद्धिहिं केरा पंथडा-सिद्धि का मार्ग' प्रयोग उल्लेखनीय है ।
भाषा की भांति अभिव्यक्ति का दूसरा मुख्य अंग है—अलंकार । 'अलंकार' अलम् तथा कार इन दो शब्दों के सहयोग का परिणाम है। अलम् का अर्थ है-भूषण । जो अलंकृत अथवा भूषित करे वह वस्तुतः अलंकार है । प्राचार्य वामन के अनुसार अलंकार काव्य के बाह्य शोभाकारक धर्म हैं, इस धर्म का पक्ष काव्य का अलंकरण या सजावट है । विवेच्य कवि ने अपने अलंकार-विषयक वैदूष्य प्रदर्शित करने के लिए अलंकारों का प्रयोग नहीं किया है । कवि का मूल प्रयोजन रहा है अभिव्यक्ति को सरस तथा सरल बनाना ताकि सामान्य पाठक अथवा श्रोता उसके अभिप्राय को सरुचि सहज में समझ सके । इस प्रयोजन-प्रयोग में रूपक, उपमा, दृष्टान्त, श्लेष, आदि अलंकारों के प्रयोग द्रष्टव्य हैं ।
जहाँ तक रूपक अलंकार के प्रयोग का प्रश्न है विवेच्य काव्य में निरंग रूपकों का ही प्रयोग बन पड़ा है । जिन में भवसायरु (प. प्र., 1.4), सिव-सुक्खा (प. प्र., 1.5), सिद्धि सुहु (प. प्र., 1.15), देहा-देवलि (प. प्र., 1.42), धम्म रसायणु (1.46), भव-तीरु (प. प्र., 1.51) इत्यादि प्रयोग मुखर हैं । काव्य में सांगरूपक अलंकार का प्रयोग प्रायः विरल ही है । यथा
ए पंचिदिय करहडा जिय मोक्कला न चारि ।
चरिवि असेसु वि विसय-वणु पुणु पाडहिँ संसारि ॥ यहाँ पंचेन्द्रियरूपी करहड़ा अर्थात् ऊंट विषयरूपी वन को चरता है।
प. प्र. 2.136
उपमा अलंकार भी कवि ने इसी प्रयोजन से प्रयुक्त किए हैं । यथा
दप्पणि मइलए बिबु जिमि एहउ जाणि णिभंतु । अर्थात् मैले दर्पण में जैसे मुख नहीं दिखता है उसी प्रकार जो योगी स्वादिष्ट आहार से हर्षित होते हैं और नीरस पाहार में क्रोधादि कषाय करते हैं वे मुनि भोजन के विषय में गृद्ध पक्षी के समान हैं । यथा
जें सरसिं संतुट्ठ-मण विरसि कसाउ वहति । ते मुणि भोयण-घार गणि णवि परमत्थु मुणंति ।।
प.प्र. 2.111 (4)